KD Jadhav got Arjuna Award after 49 years of winning Olympic medal in 1952 Helsinki Olympics |ओलंपिक मेडल जीतने वाले पहलवान केडी जाधव को 49 साल बाद मिला था अर्जुन अवॉर्ड

KD Jadhav got Arjuna Award after 49 years of winning Olympic medal in 1952 Helsinki Olympics |ओलंपिक मेडल जीतने वाले पहलवान केडी जाधव को 49 साल बाद मिला था अर्जुन अवॉर्ड


नई दिल्ली: आज आप सारे ओलंपिक मेडल विजेताओं का रिकॉर्ड उठाकर देख लीजिए, लगभग सभी को थोड़ा पहले या थोड़ा बाद में पद्म पुरस्कार मिल ही गया होगा, अर्जुन अवॉर्ड तो आम बात है. लेकिन देश के लिए जो अपने दम पर पहली बार ओलंपिक से मेडल लेकर आए थे, जिसको ओलंपिक में 2-2 बार भेजने तक का खर्च सरकार ने नहीं उठाया था. उन्हें सरकार ने अर्जुन अवॉर्ड (Arjuna Award) तो दिया, लेकिन 49 साल बाद, जबकि उनकी मौत को भी 17 साल बीत चुके थे. आज उनकी पुण्यतिथि है, खशाबा दादासाहेब जाधव यानी केडी जाधव (KD Jadhav) की कहानी बताती है कि भारत ओलंपिक खेलों में क्यों पिछड़ता चला गया.

ये काफी दिलचस्प है कि तब तक हमारी हॉकी टीम 6 ओलम्पिक गोल्ड मेडल जीत चुकी थी और उस साल भी गोल्ड ही जीता था, जब व्यक्तिगत कैटगरी में केडी जाधव ने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में कुश्ती में ब्रॉन्ज मेडल जीता था. आजादी के बाद भारत का ये पहला ओलंपिक मेडल था, जो किसी भारतीय ने अपने दम पर जीता था. हालांकि भारत की तरफ से आजादी से पूर्व पहली बार व्यक्तिगत कैटगरी में 1900 के पेरिस ओलंपिक में 2 सिल्वर मेडल कोलकाता में पैदा हुए एक अंग्रेज ने एथलेटिक्स मे जीते थे, उसका नाम था नॉर्मन गिल्बर्ट प्रिटचार्ड, जो बाद में ब्रिटेन चले गए औऱ वहीं एक्टिंग के फील्ड का महारथी बन गए और फिर हॉलीवुड चले गए

लेकिन केडी जाधव के लिए ये जिंदगी आसान नहीं थी. एक पहलवान दादाभाई जाधव के घर में महाराष्ट्र के सतारा के गोलेश्वर गांव में पैदा हुए हुए थे केडी. उनके पिता शुरू से ही कुश्ती की ट्रेनिंग देने लगे. केडी जाधव ने उन दिनों भारत छोड़ो आंदोलन में भी हिस्सा लिया, क्रातिकारियों और आंदोलनकारियों की भी मदद की. कोल्हापुर के महाराज की मदद से सबसे पहले उन्हें 1948 के ओलंपिक में लंदन भेजा गया, एक अमेरिकी पूर्व वर्ल्ड चैम्पियन कोच रीस गार्डनर ने उनको ट्रेनिंग दी. वो मैट पर कभी कुश्ती नहीं लड़े थे, फिर भी फ्लाईवेट सेक्शन में छठे स्थान पर आने में सफल रहे.

लेकिन केडी ने जिस तरह से 3 से 4 मिनट के अंदर ऑस्ट्रेलिया के पहलवान बर्ट हैरिस और अमेरिकी पहलवान बिली को धूल चटाई, लोग हैरान हो गए. दरअसल केडी के शरीर में पहलवानों जैसी चर्बी नहीं थी, बल्कि जिम्नास्ट जैसी लचक थी, इसी से उन्हें फायदा मिलता था. अगले 4 साल उन्होंने हेलिसंकी ओलंपिक के लिए जमकर मेहनत की. लेकिन इस बार कोई भी उनका खर्च देने के तैयार नहीं था, न ही सरकार और न ही कोल्हापुर के महाराजा जैसे दानवीर.

इस बार उनकी मदद के लिए उनके राजाराम स्कूल के प्रिंसिपल सामने आए, उन्होंने अपना घर तक गिरवी रखकर केडी को हेलसिंकी भेजा. 20 जुलाई 1952 का दिन उनके लिए बड़ा था, क्वालीफाइंग मैराथन राउंड में केडी ने एक के बाद एक मैक्सिको, कनाडा और जर्मनी के पहलवानों को हराकर सेमीफानल में अपनी जगह पक्की कर ली. अब उनकी लड़ाई सोवियत संघ के राशिद से होनी थी, जो अपना पिछला मैच देर से खत्म करके इंतजार कर रहा था.

हर मैच के बीच 30 मिनट ब्रेक का समय होता था, लेकिन रूसी अधिकारियों ने केडी को ब्रेक का समय नहीं दिया और वहां किसी भारतीय अधिकारी ने पहुंचने की जहमत तक नहीं उठाई थी. केडी ने विरोध किया लेकिन कोई उनके साथ नहीं था, और थके हारे केडी को राशिद ने आसानी से हरा दिया. इस तरह केडी का गोल्ड या सिल्वर जीतने का सपना चकनाचूर हो गया और उनको केवल ब्रॉन्ज से ही संतोष करना पड़ा. लेकिन उनको देश का ध्वज लहराने का मौका मिला. जब लौटे तो उनके गांव के पास कराड स्टेशन से 10 किलोमीटर गांव तक 151 बैलगाड़ियों के साथ उनका स्वागत जुलूस निकाला गया.

1955 में वो पुलिस में दारोगा बन गए, पुलिस वालों के स्पोर्ट्स इंस्ट्रक्टर के तौर पर काम करने लगे. लेकिन किसी ने उनको वो तवज्जो नहीं दी, जो पहली बार देश के लिए व्यक्तिगत पदक जीतने वाले को मिलनी चाहिए. बाद में वो इस नौकरी से असिस्टेंट कमिश्नर बनकर रिटायर्ड हो गए. फिर विभाग से सालों तक पेंशन के लिए लड़ते रहे. उनके जिंदा रहते उनको जो एक सम्मान मिला वो था, दिल्ली में 1982 में हुए एशियन गेम्स में मशाल उठाने वाले खिलाड़ियों में उनको भी शामिल करना. विदेशों की परंपरा को कॉपी करते हुए, तब किसी भी गेम में बड़े पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को खोजकर निकाला गया था.

1961 में शुरू हुआ था अर्जुन अवॉर्ड और केडी जाधव को मिला उनकी मौत के 17 साल बाद यानी 2001 में, हालांकि 2010 में जब कॉमनवेल्थ गेम्स दिल्ली में हुए तो रेसलिंग स्टेडियम का नाम उनके नाम पर रखा गया. 1984 में उनकी एक रोड एक्सीडेंट में मौत हो गई थी, जीते जी उन्हें ढंग का कभी कोई सम्मान नहीं मिला, पदम पुरस्कार तो छोड़ दीजिए, रिटायरमेंट के बाद उनका जीवन पेंशन के लिए लड़ते या गरीबी से जूझते हुए बीता. केडी जाधव की कहानी ये जानने के लिए काफी है कि हमारा देश ओलंपिक जैसे खेलों में इतना पीछे क्यों रहा है. अब केडी जाधव पर फिल्म बनाने की भी चर्चा पिछले साल से चल रही है.





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