Madhya Pradesh: क्या अपशब्दों की राजनीति से रुकेंगे महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध? | – News in Hindi

Madhya Pradesh: क्या अपशब्दों की राजनीति से रुकेंगे महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध? | – News in Hindi


यदि वास्तव में ‘आइटम’ या ऐसे ही ‘और’ शब्दों के मार्फत मध्यप्रदेश महिला सम्मान पर इतना गंभीर है तो इसे प्रदेश की राजनीति में नए युग का सूत्रपात माना जाना चाहिए. अक्सर मुददों पर चुनाव होते रहे हैं, पर ताजा उपचुनाव एक शब्द को मुददा बनते देख रहा है. गांधी को साक्षी मानकर, गांधी की फोटो लगाकर, असल मुद्दों की बजायशब्दों पर सवाल खड़े कर देने से राजनीतिक सरगर्मी बढ़ाई जा रही है. क्या यह माहौल वास्तव में हमेशा से हाशिए पर रहीं महिलाओं के सम्मान की दिशा में कुछ कर पाएगा?

मध्यप्रदेश नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में पिछले 10-15 साल से महिलाओं के खिलाफ अपराधों में अव्वल रहा है. अब भी जो आंकड़े सामने आते हैं वह कोई अच्छी तस्वीर पेश नहीं करते हैं, ऐसे में यह चिंतन केवल घंटे—दो घंटे का नहीं है. यह कोई चुनावी चिंतन भर भी नहीं है. यह गंभीर मंथन का ​मुददा है, जो पक्ष—विपक्ष की आरोप प्रत्यारोप आधारित हल्की राजनीति से हल नहीं हो सकता है.

जो लोग मध्यप्रदेश की राजनीति में तैर रहे आइटम शब्द से परिचित नहीं है, उन्हें बता दें कि मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने एक चुनावी रैली में बिना नाम लिए एक महिला नेता को आइटम शब्द से नवाज दिया. भाजपा ने इसे महिला एवं बाल विकास विभाग की मंत्री इमरती देवी के लिए इस शब्द को माना. इमरती देवी ज्योतिरादित्य सिंधिया की करीबी हैं. वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस शब्द को महिला अस्मिता के खिलाफ मानते हुए इस पर घोर आपत्ति की. उन्होंने मौन व्रत रखा और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र भी लिखा. राहुल गांधी ने भी इस बयान पर आपत्ति जता दी.

उधर, खुद कांग्रेस से भाजपा में आए मंत्री बिसाहूलाल साहू ने अपने विरुदध खड़े प्रत्याशी की पत्नी के विषय में एक आपत्तिजनक बयान जारी करके भाजपा के लिए मुश्किल खड़ी कर दी. उन्होंने विरोधी उम्मीदवार की पत्नी को रखैल कह दिया. इसके बाद संसदीय कार्य मंत्री की हैसियत से वरिष्ठ नेता नरोत्तम मिश्रा को माफी मांगनी पड़ी.

बयानों के इतिहास में ऐसे कई मौके हैं जब महिलाओं के खिलाफ टिप्पणी करके उनके सम्मान पर प्रहार किया गया है. दोनों ही पार्टियां महिलाओं के सम्मान से सरोकार रखने का दावा कर रही हैं, पर क्या वास्तव में ऐसा है. क्या वाकई मध्यप्रदेश में महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा ​की चिंता रही है?

अब प्रदेश में अपराध के आंकड़ों पर थोड़ी नजर डाल लेते हैं. जिस साल शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली, उस साल मध्यप्रदेश में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार महिलाओं के साथ 2921 बलात्कार की घटनाएं हुई थीं और जिस साल उन्हें मुख्यमंत्री पद से जनता ने ब्रेक दिया उस साल यह बलात्कार की घटनाएं बढ़कर 5433 पर जा पहुंचीं. 2004 से लेकर 2018 तक के कार्यकाल में 54011 बलात्कार की घटनाएं हुईं. देखा जाए तो औसतन हर दिन बलात्कार की दस घटनाएं दर्ज की जाती रहीं. इसी तरह 2005 में अपहरण  की 604 घटनाएं दर्ज की गई थीं जो 2018 में बढकर 6126 पर जा पहुंचीं. यह सभी आंकड़े सरकारी हैं.

महिलाओं के साथ अपराध के अन्य मामले जैसे दहेज प्रताड़ना, छेड़छाड़, यौन हिंसा, घरेलू हिंसा, पतियों द्वारा मारपीट, मानव तस्करी, अपहरण आदि के आंकड़े जोड़ दिए जाएं तो हमारा चेहरा शर्म से धंस जाता है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के ही ​मुताबिक 2006 से लेकर 2016 तक के दस सालों में मध्यप्रदेश के अंदर बलात्कार के मामलों में 74 प्रतिशत, अपहरण के मामलों में 630 प्रतिशत, रिश्तेदार या पतियों द्वारा मारपीट के मामलों में 76 प्रतिशत, दहेज प्रताड़ना संबंधी मामलों में 93 प्रतिशत, ट्रैफिकिंग के मामलों में 108 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है. बाल विवाह भी चोरी छिपे जारी है, इसे रुकवाने की मुख्य जिम्मेदारी उसी विभाग की है, जिसकी मंत्री इमरती देवी हैं, इसके बावजूद पूर्ण रोकथाम नहीं हो पाई है.

मध्यप्रदेश में इसी संकट को दिनों दिन बढ़ता हुआ देख मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने देश में पहली बार बलात्कार के मामलों पर फांसी की सजा का कानून विधानसभा में पास करवाया था, जो देश में इस तरह का पहला कानून था. हालांकि इसे बारह वर्ष तक की बच्चियों तक के लिए सीमित किया गया है. इसके बावजूद मध्यप्रदेश में बलात्कार की घटनाएं रुकी नहीं, बल्कि बलात्कार के बाद हत्याओं कर देने के मामले और बढ़ गए, क्योंकि अपराधी अपराध करने के बाद सबूत जिंदा नहीं छोड़ना चाहता है. इसके बावजूद अपराध में कोई कमी नहीं आई. आंकड़े तो यही बताते हैं.

सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि अपराध दर्ज नहीं किए जाने का भी एक बड़ा प्रतिशत है, क्योंकि हमारे समाज में महिलाओं को वैसे ताकत ही नहीं मिल पाती कि वह एक पितृसत्तात्मक समाज में अपने पर होने वाली आपबीती को खुलकर कह सके. जब अपराध अपने पूरे वीभत्स रूप में होते हैं, वह दुर्घटना की तरह सामने आते हैं, तब तो मामले खुल जाते हैं, लेकिन समाज में घरों की चाहरदीवारी के अंदर की बहुत सारी बातें अनकहीं ही रह जाती हैं.

फिर क्या किया जाए? क्या वास्तव में इस चिंतन पर किसी और तरह से सोचने, समझने की जरुरत है. क्या इसपर वास्तव में एक साफ—सुथरी राजनीति की जरुरत है. क्या हमें सजा से आगे अपनी शिक्षा व्यवस्था के मार्फत एक ऐसा समाज बनाने की जरुरत है, जहां पर नैतिकता का तकाजा हो, लेकिन समाज में सर्वोच्च नैतिकता के पतन की ऐसी मिसालें बनाने, उन्हें भुनाने का खेल खुलेआम चलता हो, वहां इन पर एक स्वस्थ बहस हो भी तो कैसे ? वह मात्र एक पॉलिटिकल इवेंट बनकर रह जाती है ! वरना किसी भी समाज में हर दिन दस बलात्कार की घटनाएं  और लगातार होते दूसरे अपराध एक बड़ी बहस की मांग करते हैं. (डिस्क्लेमर: यह लेखक के निजी विचार हैं.)





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