मप्र की 28 सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा के खाते में 19 और कांग्रेस के खाते में 9 सीट आई है. बसपा ने कोई सीट नहीं जीती मगर कांग्रेस के सपने को बिगाड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है. 2008 में बसपा को 7 सीटों पर सफलता मिली थी. तब बसपा का वोट प्रतिशत भी बढ़कर 9 प्रतिशत हुआ था. 2013 में बसपा ने प्रदेश में 4 सीटें जीती थीं. 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41.0, कांग्रेस को 40.09 और बसपा को 5 प्रतिशत वोट मिले थे. उपचुनाव 2020 में भाजपा को 49.46, कांग्रेस को 40.50 और बसपा को 5.75 प्रतिशत वोट मिले थे. अपने वोट शेयर में मामूली बढ़त पाकर बसपा कांग्रेस के लिए वोट कटवा साबित हुई है. मत प्रतिशत बता रहा है कि बसपा की मौजूदगी के कारण शिवपुरी जिले की पोहरी, मुरैना जिले की जौरा, भिंड जिले की मेहगांव, दतिया जिले की भांडेर, छतरपुर की मलहरा सीट कांग्रेस के हाथ से गई.
जौरा सीट तो ऐसी है, जहां बसपा-कांग्रेस के वोट प्रतिशत को मिला दें, तो यह भाजपा को मिले वोट से 20 प्रतिशत ज्यादा होगा. भांडेर सीट पर इस उपचुनाव की सबसे छोटी जीत हुई. यहां कांग्रेस के फूलसिंह बरैया 161 मतों से हारे. प्रदेश की दलित राजनीति का बड़ा चेहरा बरैया का खेल बसपा के महेंद्र बौद्ध ने बिगाड़ा. कांग्रेस छोड़ कर बसपा में बए महेंद्र सिंह बौद्ध को 7500 वोट मिले. भांडेर में 2018 में बसपा को 2634 मत ही मिले थे. बौद्ध की जगह कोई और बसपा उम्मीदवार होता या बसपा व कांग्रेस का गठबंधन होता तो भाजपा की जीत मुश्किल थी.
जौरा में कांग्रेस के पंकज उपाध्याय को 54,121 मत मिले जबकि बसपा के सोनेराम कुशवाह 48,285 मत ले गए. इस सीट से भाजपा के सूबेदार सिंह 67,599 वोट लेकर विजयी हुए. 2018 में जौरा में बसपा प्रत्याशी को 41014 वोट मिले थे. साफ है कि कांग्रेस और बसपा का गठबंधन होता तो भाजपा उम्मीदवार काफी पीछे होते. मलहरा में भाजपा के प्रद्युम्न लोधी की जीत भी बसपा के अखंड प्रताप के कारण संभव हुई है. बसपा बड़ा मलहरा में 20502 वोट यानी 13.7 प्रतिशत वोट ले गई. कांग्रेस को 33.4 प्रतिशत वोट ही मिले हैं. यहां कांग्रेस और बसपा को 47.1 प्रतिशत वोट मिले हैं जो भाजपा के उम्मीदवार प्रद्युमन सिंह तोमर से दो प्रतिशत ज्यादा हैं.
मेहगांव में मंत्री ओपीएस भदौरिया को कांग्रेस के हेमंत कटारे ने कड़ी टक्कर दी. हेमंत को 37.7 प्रतिशत वोट मिले हैं, जबकि भदौरिया को 45.1 प्रतिशत वोट मिले हैं. बसपा के योगेश नरवरिया यहां 13.7 प्रतिशत वोट ले कर गए. यहां भी यदि बसपा और कांग्रेस का साझा वोट प्रतिशत भाजपा को मिले वोट से 6.3 प्रतिशत ज्यादा है. पोहरी में तो बसपा दूसरे नंबर पर रही. वहां बसपा का वोट शेयर 26 प्रतिशत रहा जबकि कांग्रेस का 25.2 ही रहा. भाजपा के विजेता उम्मीदवार मंत्री सुरेश धाकड़ को 39.2 प्रतिशत वोट मिले.
ग्वालियर-चंबल में उप चुनाव वाली 16 सीटों पर बसपा का अच्छा खासा असर है. यहां कांग्रेस और बसपा को दूर रखने की भाजपा की रणनीति 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद उपचुनाव में भी एकबार फिर कामयाब हुई है. एक समय भाजपा के खिलाफ आग उगलने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती का रूख बीते कई दिनों से भाजपा के प्रति नरम ही रहा है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रति उनकी नाराजगी योगी सरकार के खिलाफ दो चार ट्वीट तक ही सीमित रही है. 2018 के चुनाव में मायावती ने मप्र अकेले ही चुनाव लड़ने और छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की पार्टी छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (छजकां) के साथ गठबंधन कर कांग्रेस से दूरी बना ली थी. भाजपा और कांग्रेस के प्रति मायावती के रवैये में बदलाव का कारण केंद्र सरकार द्वारा उन पर चल रहे मुकदमे और सीबीआई का दबाव माना गया है. मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने 2018 में कांग्रेस के साथ गठबंधन न होने पर खुलकर कहा था कि मायावती ने केंद्र और उसकी जांच एजेंसियों के दबाव में कांग्रेस का साथ नहीं दिया है. जबकि मायावती सम्मानजनक सीट बंटवारा न होने पर साथ नहीं आने की बात दोहराती रही.
2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 114 सीटों पर तथा भाजपा 109 सीटों पर जीती थी. बसपा को पथरिया और भिंड में जीत मिली थी. 2013 की चार सीटों के मुकाबले 2018 में बसपा की सीट घटकर दो ही रह गई थीं. शायद इसी कारण कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने उपचुनाव में बसपा की ताकत को कमतर आंकने की चूक कर दी. वे भूल गए कि विधानसभा चुनाव 2018 में भले ही बसपा, सपा, गोंगपा ने कम मत हासिल किए लेकिन कुछ सीटों पर कांग्रेस और भाजपा को बड़ा नुकसान पहुंचाया जबकि कई सीटों पर समीकरण बिगाड़े और कई सीटों पर जीत के अंतर से अधिक वोट सपा-बसपा और गोंगपा प्रत्याशियों को मिल थे. यदि कमलनाथ ने बसपा से गठबंधन के प्रयास उपचुनाव में भी किए होते या बसपा प्रत्याशियों की मौजूदगी को देखते हुए अपनी रणनीति में बदलाव किए होते तो शायद मप्र विधानसभा उपचुनाव का परिणाम कुछ और होता.अब जबकि मप्र में बसपा ने उत्तर प्रदेश से जुड़े इलाके में कांग्रेस का खेल बिगाड़ कर भाजपा की ताकत बढ़ाई ही दी है, बसपा नेता मायावती का यह कदम भविष्य की राजनीति की ओर संकेत भी देता है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के जातीय समीकरण तोड़ कर राजनीति के नए ककहरे को रचने, दलित राजनीति में चंद्रशेखर रावण के उभरने और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के सक्रिय होने के बाद मायावती का यह कदम अधिक दिलचस्प हो गया है. वे उत्तर प्रदेश में अपना किला बचाने की कोशिश में है और इसके लिए वे कांग्रेस को हर स्तर पर कमजोर करने को तैयार हैं. फिर चाहें उनकी ये कोशिशें उस भाजपा को ही लाभ पहुंचाएं जिसका वे जीवन भर विरोध करती रही हैं. (डिस्क्लेमर: यह लेखक के निजी विचार हैं.)
पंकज शुक्लापत्रकार, लेखक
(दो दशक से ज्यादा समय से मीडिया में सक्रिय हैं. समसामयिक विषयों, विशेषकर स्वास्थ्य, कला आदि विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं.)
First published: November 12, 2020, 8:49 PM IST