‘लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में’ और ‘कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से ये नए मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो।’ इन शेरों ने भोपाल के शायर काे दुनियाभर में बुलंदी पर पहुंचा दिया। ये शेर लोगों की जुबां पर इस कदर चढ़े कि आज भी महफिलों में ये शेर गूंजते हैं। जिनसे कभी महफिलें गुलजार रहती थीं, वह मकबूल शायर पद्मश्री बशीर बद्र साहब इन दिनों भोपाल में डिमेंशिया नामक बीमारी से जूझ रहे हैं। यह भूलने की बीमारी है। एक समय मुशायरे और महफ़िल की शान माने जाने वाले बशीर साहब आज तन्हा हैं। बशीर साहब को हाल ही में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) से 46 साल बाद पीएचडी की डिग्री मिली है। डिग्री मिलने पर किसी मासूम की तरह वह चहक उठे। उन्होंने डिग्री को सीने से लगा लिया। दैनिक भास्कर के सीनियर रिपोर्टर राजेश गाबा ने भोपाल डॉ. बशीर बद्र के घर जाकर उनकी सेहत का हाल जाना और उनकी पत्नी डॉ. राहत बद्र, बेटे तैयब बद्र से बशीर साहब को 46 साल बाद मिली पीएचडी की डिग्री, उसके विषय और उनकी जिंदगी से जुड़ी कईं बातें की…

गज़लों का समंदर कहे जाने वाले शायर बशीर बद्र अपनी गज़लों में एहसास और दौरे हालात को पिरोने वाले शायर भी है। अपनी शायरी और एक खास लहजे के लिए जाने जाने वाले शायर बशीर बद्र साहब की पत्नी डॉ. राहत बद्र ने दैनिक भास्कर खास बातचीत में कहा कि ‘डॉ. बशीर बद्र साहब ने 1973 में पीएचडी कर ली थी। थीसिस समिट करने के बाद वे अध्यापन के क्षेत्र में चले गए। इसके साथ ही शायरी का सिलसिला उनका परवान चढ़ने लगा तो कामकाजी व्यस्तता के चलते उनका इस तरफ ध्यान नहीं गया। हालांकि वर्ष 1975 में डिग्री वितरण समारोह में मुशायरों की व्यस्तता से वह इस आयोजन में शिरकत नहीं कर सके। वे जब भी अलीगढ़ मुशायरे में जाते थे तो इतना कम वक्त होता था कि वो इसकी प्रोसेस कर पाएं। कई लोगों को कहा भी लेकिन तब मुमकिन नहीं हो सका। फिर मैंने और बेटे तैयब ने इस पर कोशिश की। उनके सारे डॉक्यूमेंट्स भेजे गए। डिग्री हासिल करने की प्रक्रिया कठिन थी। उसमें भी रिकॉर्ड तलाशना अहम था लेकिन, एएमयू के पीआरओ राहत अबरार ने राहत बद्र की काफी मदद की तो करीब दो-तीन साल की जद्दोजहद के बाद डिग्री मिल गई। आखिर जब ऊपरवाले को मंजूर था मिल गई। उन तमाम लोगों का शुक्रिया, जिन्होंने हम तक पहुंचाने में हमारी मदद की।

बशीर साहब पीएचडी करने से पहले हो चुके थे मशहूर
डॉ. बशीर बद्र साहब ने वर्ष 1973 में पीएचडी की। उनका विषय था ‘आजादी के बाद की गजल का तनकीदी मुताला’। इसी शीर्षक से उन्होंने अपनी थीसिस एएमयू में समिट की थी। इसमें उन्होंने 1970 तक के शायर को शामिल किया था। इसकी सबसे खास बात यह थी। मुझे पता नहीं बशीर साहब ने कभी ऐसा किया है या नहीं। गजल के शायर की पीएचडी में खुद उनकी थीसिस में उनके 87 शेर मौजूद थे। यह बहुत बड़ी बात है कि बशीर बद्र साहब पीएचडी करने से पहले अपनी शायरी के लिए मशहूर हो चुके थे।

डिग्री पाकर बच्चे की तरह खुश हो गए बशीर साहब
ये डिग्री अभी जब अभी हमारे पास आई तो हमने बशीर साहब को बताया कि जिस डिग्री को हासिल करने के लिए हम इतने साल से कोशिश कर रहे थे। वो मिल गई है। उन्हें देखा तो अपने सीने से लगा लिया और बहुत खुश हुए। जाहिर है कि उन्हें ये पता है कि उन्होंने बहुत मेहनत से पढ़ाई की थी। जब ये 10वीं में थे तब इनके वालिद का इंतकाल हो गया था। इन्होंने कई साल बीच में पढ़ाई छोड़ दी। अपने बहन भाइयों को पढ़ाने के लिए ये जॉब करने लगे और साथ में पढ़ाई भी करते रहे। काफी साल के बाद उन्होंने एमए और पीएचडी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से की । बहुत शिद्दत से पढ़ाई की। इसलिए इन्होंने एमए प्रीवियस और फाइनल में भी टॉप किया। बशीर साहब ने मुझे बताया था कि उस वक्त इनके साथ एक स्टूडेंट लड़की थी जिसने बशीर साहब से कहा कि आप इस बार एग्जाम मत दीजिए। क्याेंकि मुझे टॉप करना है। तब बशीर साहब ने कहा था कि मेरे पास वक्त नहीं है। इस साल तो मुझे ही टॉप करना है। उन्होंने जैसा कहा वैसा किया। जितने बशीर साहब के उस वक्त नंबर आए थे उतने आज तक किसी के नहीं आए।

इन दिनों वे अपने शेर सुनते हैं, दाद देते हैं, शेर का अगला मिसरा खुद ही सुनाने लगते हैं
डॉ. राहत बद्र ने बताया कि बशीर साहब माशा अल्लाह इन दिनों बहुत हशाश बशाश खुश रहते हैं। जिस तरह सेहतमंद थे, खाते-पीते थे, हंसते बोलते थे वो भी सब करते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि कम सुनते लगे, नजर कमजोर होने लगी, याददाश्त थोड़ी कमजोर हो गई। डिमेंशिया में डॉक्टर ने हमें ये समझाया कि इनको पुरानी बातें तो याद आएंगी, लेकिन नया थोड़ा भूल जाएंगे। मैं और हमारा बेटा तैयब बशीर साहब को उनके शेर सुनाते हैं। तो अगला शेर डॉ. बशीर साहब पढ़ने लगते हैं, दाद देने लगते हैं। वो अपने शेर दोहराने लगते हैं। उनकी याददाश्त कमजोर हो गई है। हम और उनके दुनियाभर में चाहने वाले यही दुआ कर रहे हैं कि वो जल्द सेहतमंद हों।

दिन में सोते हैं रात को जागते हैं
बशीर बद्र साहब ने 60 साल तक लगातार मुशायरे में जाते रहे। जिस तरह वो दिन में आराम करते थे और देर रात तक मुशायरों में जाते थे।
वहीं उनका अभी भी रूटीन हो गया है। वो रात में जागते हैं और दिन में सोते हैं। उनकी आदत सी पड़ गई है। वो इन दिनों अपनी गजलें सुनते हैं। लेटे-लेटे लिखते भी रहते हैं।

दंगों में घर जलने के जख्म को भरने में लगा समय
1987 के मजहबी दंगों में बशीर बद्र साहब के मेरठ में घर को आग के हवाले कर दिया गया था। उस घटना ने उनको सदमा पहुंचाया। इस हादसे से वो डिप्रेशन में भी चले गए थे। बहुत लंबा वक्त लगा उस हादसे से बाहर आने में। शायद यही वजह है कि वो अक्सर मुशायरों में एक शेर पढ़ते थे कि ‘लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में।’ धीरे-धीेर बशीर साहब अपने शेर मंचों पर भूलने लगे तो इन्होंने मुशायरों में जाना कम कर दिया। डॉक्टर साहब कहते थे कि मैं अपने चाहने वालों को निराश नहीं कर सकता। उनका पसंदीदा शेर पूरा न सुना पाऊं। डॉक्टर साहब को तकरीबन 15 साल हो गए, वो महफिलों में नहीं गए। उन्होंने घर पर ही रहकर काफी गजलें और शेर लिखे। जो अक्सर अखबारों और मैग्जीन्स में छपते रहे। आखिरी किताब उनकी 12 साल पहले ‘मैं बशीर हूं’ नाम से वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी।

जब बशीर साहब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने गए, वहां सिलेबस में उनके शेर पढ़ाये जाते थे
बशीर साहब के बेटे तैयब बद्र ने कहा कि अब्बा ने जब 10वीं की थी तब उनके वालिद का इंतकाल हो गया। अब्बा ने मुशायरे में शेर पढ़ने लगे और जॉब करने लगे। अब्बा ने जब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया तब बशीर साहब के शेर वहां के सिलेबस में पढ़ाए जा रहे थे नए शायरों के सेक्शन में। जब उनका वायवा हुआ तो उनके प्रोफेसर ने उन्हीं के शेर के बारे में उनसे पूछा गया। वो शेर था- ‘अब मिले हम तो कई लोग बिछड़ जाएंगे, इंतजार और करो अगले जनम तक मेरा।’ बशीर साहब के जवाब से प्रोफेसर खुश नहीं हुए। उन्होंने अब्बा को कहा कि ये शेर ऐसे कहा जाता है हम बताते हैं। अब्बा हमेशा ये किस्सा सुनाते थे कि प्रोफेसर हमेशा सही होता है। जिस शेर से बशीर साहब जाने जाते हैं। वो अक्सर मुझसे सुनते हैं। वो शेर है- ‘उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो, न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए। ‘जैसे ही सुनते हैं अगला मिसरा खुद ही पूरा कर देते हैं। मुझे अब्बा का ये शेर बेहद पसंद है।’कोई फूल धूप की पत्तियों में, हरे रिबन से बंधा हुआ, वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया, न कहा हुआ न सुना हुआ ।’ जब उन्हें सुनाता हूं तो वो कहते हैं वाह-वाह बड़ा अच्छा शेर है किसका है। तब मैं कहता हूं अब्बा आपका ही है। तब कहते हैं अच्छा। हंसने लगते हैं। इसी तरह हमारा दिन गुजरता है।
गौरतलब है कि वर्ष 1969 में बशीर बद्र ने एएमयू से स्नातकोत्तर की उपाधि भी ली थी। शायर बशीर बद्र ने मेरठ कॉलेज के उर्दू विभाग में 12 अगस्त 1974 को बतौर लेक्चरर ज्वाइन कर लिया था। वे यहां वर्ष 1990 तक रहे। वर्ष 1974-1990 का दौर बशीर बद्र के लिए काफी अहम रहा। तब वे शायरी के बुलंदी को छू रहे थे।