बशीर साहब को 48 साल बाद उनकी पीएचडी की डिग्री मिली.
बशीर साहब ने 1973 में उर्दू में पीएचडी की थी, लेकिन, फिर शायरी की दुनिया में इतने मशगूल हो गए कि कभी उसे लेने नहीं गए.
- News18Hindi
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January 29, 2021, 2:46 PM IST
गौरतलब है कि अगले महीने की 15 तारीख को बशीर साहब का जन्मदिन भी है. लेकिन, उनकी तबियत इतनी नासाज है कि आज उनके अल्फ़ाज़ कहीं गुम हैं. ग़ज़ल जैसे उनकी ज़बां पर तो है मगर उसे ख़ामोशियां गुनगुना रही हैं. अब उनकी याददाश्त के धागे इतने कमजोर पड़ गए हैं कि ख़ुद उनकी ग़ज़ल भी उन्हें याद दिलाने से याद आती है. हालांकि इस तन्हा सफ़र में भी उनकी शरीके-हयात डॉ.राहत बद्र हर लम्हा उनके साथ हैं. वह उनकी ख़ामोशियों को इस तरह समझती हैं जैसे मुहब्बत की ग़ज़ल पर कोई धीमा-सा साज़ दे रहा हो.
यह है बशीर साहब का सफरनामा
बशीर बद्र की पैदाइश अयोध्या में हुई. उनका बचपन कानपुर में बीता. उनकी तालीम अलीगढ़ में मुकम्मल हुई. वहीं मेरठ से भी उनका गहरा जुड़ाव रहा है. शायद यही वजह है कि 1987 के साम्प्रदायिक दंगों में जब उनका आशियाना खाक हुआ, तो उसकी तपिश उनके जज्बात, एहसास तक भी पह़ंची. इसी पर उनका एक शेर बहुत मशहूर है कि ‘लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में.’ हालांकि इसके बाद वह ज्यादा वक्त मेरठ में नहीं रहे और अपना ढाई कमरों का मकान छोड़ कर भोपाल में बस गए. ‘दुश्मनी जम के करो लेकिन यह गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों.’ उनका यह शेर इतना मशहूर हुआ कि अक्सर सियासत के गलियारों में इसकी गूंज सुनाई देती है.