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कुछ ही क्षण पहले
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संजय कुमार, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएडीएस) में प्रोफेसर और राजनीतिक टिप्पणीकार
किसान आंदोलन पर सरकार की सख्ती के रुकने का एक कारण यह भी लगता है कि भाजपा उत्तर प्रदेश के जाट मतदाताओं के वोट नहीं खोना चाहती। उल्लेखनीय है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट मतदाताओं की अच्छी संख्या है और उन्होंने 2017 विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में भाजपा को समर्थन दिया। भाजपा को विभिन्न अन्य समुदायों के मतदाताओं का समर्थन भी मिला, लेकिन जाटों के भाजपा के समर्थन में आने से पार्टी को 2017 विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनावों में उप्र बड़ी जीत हासिल करने में मदद मिली।
जाटों का भाजपा के पक्ष में आना इसलिए भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि जाट पिछले कई वर्षों से मशहूर जाट नेता चौधरी चरण सिंह की विरासत के कारण उनके बेटे अजीत सिंह के नेतृत्व वाले इंडियन नेशनल लोक दल के समर्थक रहे। बहुत प्रयासों के बाद जाटों को उप्र में अपने पक्ष में करने के बाद भाजपा जाट वोटों को खोना नहीं चाहती, जिससे पश्चिमी उप्र में भाजपा की चुनावी संभावनाओं को नुकसान पहुंच सकता है।
यह देखना महत्वपूर्ण है कि दिल्ली में किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई 26 जनवरी की घटना के बाद कथानक पूरी तरह बदल गया और लगा कि स्थिति पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में है। सरकार ने 28 जनवरी की रात को कार्रवाई की तैयारी कर ली थी, सड़क खाली करने के नोटिस जारी हुए, कई किसान नेताओं के खिलाफ मामले दर्ज हुए। सबसे बड़ी बात कि 26 जनवरी की घटना के बाद जनता का मूड भी किसान आंदोलन पर कड़ी कार्रवाई और तोड़-फोड़ के जिम्मेदारों को उचित सजा देने के पक्ष में लग रहा था।
लेकिन यह कथानक अचानक बदल गया, जब दिल्ली की गाजीपुर सीमा पर धरने पर बैठे पश्चिम उप्र के जाट किसान नेता राकेश टिकैत ने भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा लाठियों से मारे जाने और किसानों को हटाने के लिए हिंसा के इस्तेमाल का सार्वजनिक रूप डर जताया। टिकैत ने यहां तक कह दिया कि वे तभी पानी पीएंगे, जब उनके गांव से कोई पानी लाएगा। उनकी इस भावुक अपील पर पश्चिम उप्र के किसान अचानक लामबंद हो गए और गाजीपुर सीमा पर पहुंचकर आंदोलन में नई जान फूंक दी। जिन किसान आंदोलन को मुख्यत: पंजाब के सिख किसानों और हरियाणा व राजस्थान के कुछ अन्य किसानों का आंदोलन माना जा रहा था, वह अचानक पश्चिम उप्र के जाटों का आंदोलन बन गया।
भाजपा के लिए शायद ही पंजाब में कुछ दांव पर लगा है और हरियाणा में भी चुनावी जीत के लिए वह मुख्यत: गैर-जाट मतों पर निर्भर है। इसीलिए केंद्र सरकार हरियाणा और पंजाब में अपने जनाधार को नुकसान पहुंचने के डर के बिना सख्त कार्रवाई कर सकती थी। लेकिन अब पश्चिम उप्र के जाट किसान आंदोलन की अगुआई कर रहे हैं, राजनीतिक मजबूरी ने केंद्र सरकार के लिए इस संकट को संभालना और मुश्किल बना दिया है।
उप्र में अगले साल (फरवरी 2022) में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए, जाट वोटों में यह परिवर्तन भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है। ऐसा नहीं है कि भाजपा 2017 का विधानसभा चुनाव सिर्फ जाटों के समर्थन से जीती थी। उसकी जीत के पीछे विभिन्न जाति-समुदाय भी थे। लेकिन जाट पश्चिमी उप्र की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
आंकड़े बताते हैं कि पश्चिमी उप्र की आबादी में 12% जाट हैं। उनकी 44 विधानसभा सीटों में अच्छी-खासी मौजूदगी है। भाजपा ने इन 44 में से 37 सीटें जीती थीं। उसका वोट शेयर भी जाट बेल्ट में ज्यादा था। पूरे राज्य में भाजपा (एनडीए) को 41.3% वोट मिले, लेकिन पश्चिमी उप्र में 43.6% वोट मिले। 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने पश्चिमी उप्र क्षेत्र की 9 में से 7 सीटें जीतीं और पूरे राज्य के औसत वोट शेयर 50.7% की तुलना में 52.1% वोट हासिल किए। भाजपा के लिए 2014 लोकसभा चुनाव और बेहतर रहा था। तब उसने सभी नौ सीटें जीती थीं और 50.2% वोट हासिल किए थे, जबकि राज्य में उसका औसत 43.3% था।
इन चुनावों के दौरान हुए लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक, लगभग 70-85% जाटों ने भाजपा को वोट दिया। यह उल्लेखनीय है कि 2014 लोकसभा चुनाव से पहले हुए चुनावों में 20% से भी कम जाटों ने भाजपा को वोट दिया था। भले ही कई महापंचायतें पश्चिमी उप्र में आयोजित हुईं और 30 बिरादरियों का प्रतिनिधित्व करने वाले तीस गांवों से पानी गाजीपुर सीमा पर भेजा जा रहा है, लेकिन आम धारणा यही है कि किसान आंदोलन पर अब पूरा नियंत्रण पश्चिम उप्र के जाटों का ही है। ऐसा नहीं है कि किसान आंदोलन को संभालना पहले आसान था, लेकिन अब लगता है कि उप्र में आने वाले विधानसभा चुनावों और जाट वोटों को देखते हुए यह और मुश्किल हो गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)