दादा की ये बात अचानक मेरे ज़ेहन में तब आई जब इशांत ने अपने करियर का 300वां विकेट चेन्नई के चेपॉक मैदान में झटका. वाकई में 18 साल के युवा गेंदबाज़ के तौर अपने करियर की शुरुआत करने वाले दिल्ली के इशांत शर्मा का 32 साल की उम्र में 300 विकेट (Ishant Sharma 300 Wickets) के क्लब में शामिल होना साबित गांगुली की उस बात को साबित करता है कि वो वाकई में सिर्फ शारिरिक तौर पर लंबे नहीं बल्कि तेज़ गेंदबाज़ के तौर पर भी और लंबा फासला तय करने का माद्दा रखतें हैं. आलोचना करना बेहद आसान है कि अरे भाई 98 टेस्ट खेलकर 300 विकेट लेना कौन सी बड़ी बात है. शायद दूसरे देश के किसी तेज़ गेंदबाज़ के साथ ये आलोचना सही भी हो सकती थी लेकिन भारत जैसे मुल्क के साथ कभी नहीं. एक ऐसा देश जो आज से एक दशक पहले तक भी हर टेस्ट में 4 या 3 वर्ल्ड क्लास तेज़ गेंदबाज़ को विदेशी पिचों पर भी प्लेइंग इलेवन में शामिल करने के लिए जूझा करता था.
इशांत शर्मा ने पहला टेस्ट 2007 में खेला था. (फोटो: AFP)
इरफान पठान+वेकेंटेश प्रसाद+मनोज प्रभाकर = इशांत!
आपको मैं एक और अलग किस्म का उदाहरण देता हूं. इरफान पठान, वेकेंटेश प्रसाद और मनोज प्रभाकर- ये वो तीन खिलाड़ी हैं जिन्होंने अलग-अलग दौर में भारत के लिए टेस्ट क्रिकेट में गेंदबाज़ी की शुरुआत की और टीम की ज़रुरत के हिसाब से अलग-अलग किस्म की भूमिका भी अदा की. इन तीनों के अगर टेस्ट मैच को जोड़ दिया जाए तो वो 101 हैं और इनके कुल विकेटों की संख्या 300 से कम. ये आंकड़े आपको एक दूसरी तस्वीर दिखाने के लिए शायद काफी हों कि भारत के लिए तेज़ गेंदबाज़ होकर 300 विकेट हासिल करना कितना मुश्किल काम है. ख़ासकर तब अगर आप ये देखें को ऊपर की इस तिकड़ी में दो गेंदबाज़ तो ऐसे हैं जिन्हें कई टेस्ट मैच इसलिए खेलने को मिले क्योंकि वो बल्ले से भी टीम के लिए फायदेमंद साबित होते थे क्योंकि वो ऑलराउंडर थे.
ये बात साबित करने के लिए काफी है कि सिर्फ एक शुद्ध तेज़ गेंदबाज़ (जैसा कि ज़हीर ख़ान या फिर जवागल श्रीनाथ थे) के तौर पर भारत के लिए 200 से ज़्यादा विकेट हासिल करना पारंपरिक तौर पर कितना मुश्किल रहा है. कपिल देव के नाम सबसे ज़्यादा(तेज़ गेंदबाज़ के तौर पर) 434 टेस्ट विकेट का रिकॉर्ड है लेकिन अगर कपिल देव महान ऑलराउंडर ना होते तो क्या उन्हें भी इतने टेस्ट मैच औऱ विकेट सिर्फ गेंदबाज़ के तौर पर हासिल होते ?
करियर को सिर्फ एक फेज़ में देखना सही आकलन नहीं
इशांत का मज़ाक उड़ाने के लिए अक्सर ये दलील दी जा सकती है कि 177 पारियों के बाद 300 विकेट के क्लब में शामिल होना कौन-सी बड़ी बात है. लेकिन, इशांत के करियर को सिर्फ एक फेज़ में देखना उनका सही आकलन करने में कभी कामयाब नहीं हो सकती है. इशांत ने शुरुआत की एक तेज़-तर्रार किशोर की तरह जिसने 2008 में अपने अविस्मरणीय स्पैल से रिकी पोटिंग जैसे दिगग्ज को उन्हीं की ज़मीं पर पूरी तरह से परास्त किया. अपने पहले 34 टेस्ट में इशांत ने 112 विकेट करीब 32 की औसत से झटके. इस दौरान भारत ने 47 में 21 टेस्ट जीते और सिर्फ 8 हारे. लेकिन, 2011 के इंग्लैंड दौरे से टेस्ट क्रिकेट में ना सिर्फ महेंद्र सिंह धोनी की कप्तानी पर संकट आया(ख़ासतौर पर विदेशी टेस्ट मैचों में) बल्कि टीम के सबसे बेहतरीन गेंदबाज़ इशांत के खेल पर भी इसकी चोट पड़ी. क्योंकि दूसरे छोर पर इशांत का साथ देने के लिए अक्सर कोई नहीं होता था. उस दौरे से लेकर धोनी के रिटायर होने तक(2014 में) इशांत ने 27 टेस्ट में 75 विकेट लिए लेकिन वो 45 की औसत से आये. इस दौरान भारत ने 35 में से 17 टेस्ट गंवाये. ये वही दौर था जब धोनी के लिए इकलौते हथियार सिर्फ इशांत ही थे.
IND vs ENG: इशांत शर्मा 300 विकेट लेने तीसरे भारतीय तेज गेंदबाज हैं (Ishant Sharma/Instagram)
धोनी क्यों थे इशांत के मुरीद?
मैंने एक बार धोनी से पूछा कि आलोचक कहतें है कि आप इशांत को हर मैच में साधारण खेल(कम विकेट) के बावजूद उन्हें प्लेइंग इलेवन से बाहर नहीं करते हैं. धोनी का जवाब शानदार था- मुझे एक ऐसा गेंदबाज़ दो एक छोर को बांध कर रख दे. कम रन खर्च करे. पूरे दिन उसी तन्मयता और उसी रफ्तार से अपना आखिरी स्पैल डाले जैसा की वो अपना पहला स्पैल डालता हो. उसे इस बात से फर्क ना पड़े कि मैं उसे नई गेंद दे रहा हूं या पुरानी गेंद. उसे इस बात से फर्क ना पड़े कि मैं उसे किस छोर से गेंदबाज़ी करा रहा हूं. और सबसे अहम बात ये कि उसमें कोई अहम नहीं हो और वो कप्तान की बात पर ऐसे चले जैसा सेना में कोई सिपाही अपने सीनियर की बात मानता हो. टीम हित को लेकर उसी निष्ठा को लेकर कोई सवाल ही नहीं उठा सकता है. धोनी के तर्क में वही दम था जो गांगुली के इशांत की प्रतिभा में था. लेकिन, मैं इशांत को उनके आंकड़ों की बजाए एक बेहद सुलझे हुए और विनम्र खिलाड़ी के तौर पर ज़्यादा पसंद करता हूं. इशांत की इस बात ने मुझे हमेशा के लिए का फैन बना दिया.
यारों के यार हैं इशांत शर्मा
2008 के ऑस्ट्रेलिया दौरे के बाद इशांत भारत में स्टार बन गए थे. मुझे उन्होंने एक इंटरव्यू के दौरान बताया कि जब वो रंजीत नगर(पश्चिमी दिल्ली में इशांत के पूराने घर) में वापस लौटे और अपने बचपन के दोस्तों के साथ मोहल्ले में पहले की ही तरह गप्पे लड़ा रहे थे तो उनकी मां ने कहा कि बेटा, अब तुम भारत के लिए खेल रहे हो. तुम्हारे दोस्त अब ऐसे नहीं होंगे और तुम्हें अपना रवैया बदलना होगा. इस पर इशांत ने मासूमियत से अपनी मां को जवाब दिया- मां, जब मैं इंडिया नहीं खेला था तब भी ये मेरे दोस्त थे. ये बिना किसी स्वार्थ के मेरे साथ जुड़े हुए हैं. ये उन मैचों में मेरे लिए तालियां बजाने जाते हैं जहां पर कोई पत्रकार भी नहीं पहुंचता है. मैं इनका साथ कैसे छोड़ सकता हूं चाहे मैं कितना भी बड़ा स्टार क्यों ना बन जाऊं.
वाकई में इशांत की इस बात ने मुझे हमेशा के लिए का फैन बना दिया. पिछले 2 दशक के करियर में मैनें की युवा उभरते हुए खिलाड़ियों के रवैये को बदलते और बिगड़ते देखा है. टीम में आने से पहले पत्रकारों को भैया-भैया कहने वाले कई युवा खिलाड़ी 2-4 टेस्ट के बाद आपको नाम से और तुम से संबोधित करने में भी नहीं हिचकते हैं. लेकिन, इशांत के साथ ऐसा नहीं है. 100 टेस्ट की दहलीज़ पर खड़े इस गेंदबाज़ में वही सौम्यता बरकरार है जो 2006 में थी और आईपीएल की करोड़ों की कमाई और भारत जैसे मुल्क में स्टार बनने के बावजूद ज़मीन पर टिके रहने की इस बात ने ना सिर्फ क्रिकेट के मैदान पर उन्हें अपने कप्तानों और साथियों का मुरीद बनाया है बल्कि मैदान के बाहर भी उन्होंने अपने कई आलोचकों का दिल जीता है.