दो पद्मश्री का EXCLUSIVE INTERVIEW: भूरी ने पहली बार चित्र बना 10 दिन में 1500 रुपए कमाए तो पति को हुआ था शक, भारत भवन में करते थे चौकीदारी

दो पद्मश्री का EXCLUSIVE INTERVIEW: भूरी ने पहली बार चित्र बना 10 दिन में 1500 रुपए कमाए तो पति को हुआ था शक, भारत भवन में करते थे चौकीदारी



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  • Swaminathan Is My Mentor And Kapil Tiwari’s Life giver In His Journey From A Laborer To A World famous Artist: Bhuri Bai, I Do Not Love My Solitude So Far: Mobile Till Date: Kapil Tiwari

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भोपाल3 मिनट पहलेलेखक: राजेश गाबा

आदिवासी कलाकार भूरी बाई और लोक कला विशेषज्ञ कपिल तिवारी।

  • भूरी बाई ने कहा- स्वामीनाथन मेरे गुरु और कपिल तिवारी जीवनदाता

केंद्र सरकार ने पद्म पुरस्कारों के लिए जिन नामों की घोषणा की है, उनमें भोपाल की दो विभूतियां भी शामिल हैं। जिसमें एक भीली चित्रकार भूरी बाई हैं और दूसरे लोक कला विशेषज्ञ कपिल तिवारी। दैनिक भास्कर ने दोनों से एक साथ एक्सक्लूसिव इंटरव्यू किया। दोनों की कहानी उन्हीं की जुबानी…

सबसे पहले भीली चित्रकार भूरी बाई। मैं अनपढ़ थी, हिंदी नहीं समझती थी। अपनी कला किसको और कहां दिखाती। मैं गांव से मजदूरी करने नहीं आती और गुरु स्वामीनाथन से मुलाकात नहीं होती तो शायद आज मैं यहां नहीं होती। कभी सोचा नहीं था भारत भवन (भोपाल का कला केंद्र) में एक दिन गुरु स्वामीनाथन से मिलूंगी। 50 की उम्र पार कर चुकीं भूरी बाई बतातीं हैं कि एक दोपहर मजदूरी करने वाली महिलाएं खाना खा रही थीं, तभी स्वामीनाथन आए जो एक नामी कलाकार और कवि थे। उन्होंने पूछा- तुम्हारे यहां शादी-ब्याह कैसे होता है, किस देवी-देवता को मानते हो। क्या इस सबके चित्र बनाकर दिखा सकती हो, सभी औरतों ने मना कर दिया। मैंने उनसे कहा- हम चित्र बनाएंगे तो हमारी मजदूरी का क्या होगा? उन्होंने पूछा- कितनी दिहाड़ी पाती हो? मैंने बताया- जी रोज के 6 रुपए। उन्होंने कहा- रोज के 150 रुपए देंगे। तब मुझे 10 दिन के 1500 रुपए मिले थे। इतने पैसे लेकर घर लौटी तो पति भड़क उठे। जेठ-जेठानी ने चरित्र पर कहानियां बनाईं। पति ने काम के लिए बाहर जाने से मना कर दिया। एक दिन स्वामी जी ने मुझे और मेरे पति को संदेश भिजवाया। पति से कहा कि तुम आओ और भारत भवन में चौकीदारी करो, इमारत के साथ पत्नी की चौकीदारी भी कर लेना, देखना वो क्या काम करती है। इसके बाद पति साथ रहने लगे और फिर कभी शक नहीं किया।

लोक कला विशेषज्ञ कपिल तिवारी ने कराया था मेरा इलाज

जब मुझे चर्म रोग हो गया था, तब कपिल सर ने सपोर्ट किया और सहारा दिया। मरते-मरते अवाॅर्ड और नौकरी दिलवाई, उनकी बदौलत आज मैं जिंदा हूं। वाे मेरे लिए फरिश्ते हैं। चर्च रोग के कारण मेरे बचने की उम्मीद कम थी, उस वक्त कपिल सर ने इलाज करवाया, मेरी कला को आगे बढ़ाने में मदद की। इन सभी के आशीर्वाद से आज में यहां हूं।

मजदूरी करते-करते बन गईं चित्रकार

भूरी ने कहा कि मैं मप्र के झाबुआ के छोटे से गांव की हूं। पता नहीं था कि मजदूरी करते-करते चित्रकार बन जाऊंगी। मेरे पिता के पास थोड़ी सी जमीन थी। जब मैं 10 साल की थीं, तब चाचा और बड़ी बहन के साथ गुजरात गई। हम झाबुआ से लकड़ी काटकर ट्रेन से गुजरात लेकर जाते थे, क्योंकि वहां कीमत ठीक मिलती थी। लौटते वक्त कभी ट्रेन मिलती तो कभी नहीं। आधी रात लौटने पर भूखे ही सो जाते। थोड़ी और बड़ी हुई तो अक्सर पानी पीकर पेट पर कपड़ा बांधकर सो जाया करते थे।

बचपन से था पेंटिंग का शौक, पत्तियों से बनाती थी हरा रंग

पिता चित्र बनाते थे, उन्हें देखकर मुझे भी शौक लगा। त्योहार-ब्याह आते तो मां से लेकर पास-पड़ोस की औरतें बुलातीं, कहतीं- भूरी, दीवारें पर अल्पना उकेर दे। तब चित्र बनाने पत्तियों से हरा, कपास से सफेद और मिट्‌टी के तवे की कालिख से काला रंग बनाती थी। गेरू से लाल रंग और कपड़े की चिंदी से ब्रश बनाती। इतनी तैयारी के बाद घर की दीवारों पर पंछी, घोड़े आदि बनाती तो शादी वाला घर जगमगा जाता। ये पेंटिंग भील लोगों की 500 साल पुरानी पिथौरा कला थी। जब मैं 17 साल की थी तभी मेरी शादी हो गई। इसके बाद भोपाल आईं।

मुझे एकांत प्रिय इसलिए मैं मोबाइल नहीं रखता: लोक कला विशेषज्ञ कपिल तिवारी

लोक कला विशेषज्ञ कपिल तिवारी। मैं कहूं तो मेरा सौभाग्य है कि मुझे भूरी बाई के साथ पद्मश्री से सम्मानित किया जाएगा। मुझे लगता है कि मैं ऐसी परंपराओं में काम कर रहा था जो सामुदायिक हैं। नई पीढ़ी अब आदिवासी परंपराओं को जान रही है, उससे जुड़ रही है। मैंने साहित्य में डायरेक्ट्रेट की, लेकिन काम लोककला में मिला तो मैंने साहित्य को अलविदा कहा, लेकिन एक और साहित्य से मेरा परिचय हुआ। वह शब्दों में था, यानी वह वाचिक परंपरा का संसार। यह ऐसी दुनिया थी जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता था। हमारी आधुनिक शिक्षा ने यह हम सब लोगों के साथ किया। वो ऐसा अजीब अपराध है कि अपनी परंपरा को जाने बिना हम शिक्षित होते हैं। ऐसे आदमी के रूप में मैं भोपाल आया। तब मुझे एक रास्ता बनाना भी था और उस पर चलना भी था। मैं आज तक मोबाइल इसलिए नहीं रखता, क्योंकि मुझे अपना एकांत बहुत प्रिय है। मैं एकांत खोना नहीं चाहता, मुझे लगता है कि मैं अपने साथ रहूं। मैं लोगों के साथ रहूं, फिर उनसे विदा लेकर अपने साथ रहूं। मोबाइल एक ऐसी चीज बनी जिसमें हम पूरे समय लोगों के साथ मौजूद रहते हैं। मैं लोगों के लिए पूरे समय उपलब्ध नहीं होना चाहता।

गांव के स्तर पर परंपरा को कर सकते हैं संरक्षित

परंपरा की कला का सवाल शहरों में उसके संग्रहालय बनाकर उसको संरक्षित रखने का पूरा विचार ही मुझे ठीक नहीं लगता। मुझे लगता है एक गांव के स्तर पर परंपरा के जीवन को अगर हम सुरक्षित रख पाते हैं तो वह अपनी जड़ों के साथ रहता है, क्योंकि वह जीवन के साथ चलता है। वहां जीवन बचेगा तो जीवन की कला भी बचेगी। ऐसी जगहों को बचाना ज्यादा जरूरी है। वहीं हमारे सच्चे संग्रहालय होंगे, जीवंत संग्रहालय होंगे। हम यहां जिन लोगों के लिए संग्रहालय बना रहे हैं उन्हें उसकी कोई समझ ही नहीं है। हम एक गांव ऐसा बनाए, जहां उनकी सांस्कृतिक यात्रा के साक्ष्य मौजूद हो।

​​​​​​​भारतीय संस्कृति के अध्येता कपिल तिवारी

पद्मश्री से सम्मानित होने जा रहे लोक साहित्यकार कपिल तिवारी की पहचान भारतीय संस्कृति के अध्येता के रूप में है। उन्होंने लोक गीत, संगीत और लोक भाषाओं के साथ लोक कलाओं के संरक्षण और दस्तावेजीकरण पर उल्लेखनीय कार्य किया है। सागर में जन्मे 68 वर्षीय तिवारी ने लोक संस्कृति साहित्य से संबंधित 39 पुस्तकों का संपादन किया है। वर्तमान में वे विदेश मंत्रालय की भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के सदस्य हैं। तिवारी मप्र आदिवासी लोक कला अकादमी के निदेशक और भारत भवन के न्यासी सदस्य भी रहे हैं।



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