मध्यप्रदेश के शहडोल जिले के अमरकंटक से निकलकर गुजरात में खंभात की खाड़ी तक करीब 1312 किमी तक बहते हुए और रास्ते में पडऩे वाली कई छोटी-बड़ी नदियों को अपने दामन में समेटते नर्मदा अपनी यात्रा तय करती हैं. नर्मदा से अमरकंटक, भोपाल, इंदौर, उज्जैन, महेश्वर, बड़वानी, हरसूद, ओंकारेश्वर, होशंगाबाद, जबलपुर, डिंडोरी, मंडला, झाबुआ समेत 100 से ज्यादा छोटे-बड़े शहरों के करोड़ों लोगों को पीने का पानी मिलता है. 20 से ज्यादा जिलों में चल रही 29 बड़ी, 135 मध्यम, 3000 के करीब छोटी सिंचाई परियोजनाओं से फसलों के लिए इसी नदी से पानी मिलता है. 98496 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले नर्मदा बेसिन क्षेत्र में साढ़े तीन करोड़ से ज्यादा आबादी निवास करती है, जो इसी नदी के पानी पर निर्भर हैं. इसी नदी पर ओंकारेश्वर, इंदिरा सागर, सरदार सरोवर, महेश्वर, बरगी बांध जैसे बड़ी सिंचाई और बिजली परियोजनाएं चल रही है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नर्मदा का धार्मिक या आध्यात्मिक महत्व ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक, पुराकालीन महत्व भी है. इसी नर्मदा में डायनोसोर के अंडों के जीवाश्म मिले हैं, तो मानव खोपड़ी का 5-6 लाख साल पुराना जीवाश्म भी मिला है. कई विश्वविख्यात पुराविदों ने नर्मदा किनारे प्राचीन स्थलों का उत्खनन कर यहां की सभ्यता और संस्कृति के ज्ञानकोष को समृद्ध किया है.
विकास के नाम पर नर्मदा से खिलवाड़
बांधों के कारण पर्यावरण के नुकसान, डूब प्रभावितों के सुनियोजित विस्थापन और पुनर्वास के लिए बरसों तक गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता सुश्री मेघापाटकर ने संघर्ष किया. उनके साथ सडक़ से अदालतों की चौखट तक लंबी लड़ाई लडऩे वाले आलोक अग्रवाल नर्मदा नदी के अस्तित्व की अनदेखी, पर्यावरणीय नुकसान और उससे पड़ रहे लोगों पर प्रभावों को लेकर बहुत ही व्यथित हैं. इस मुद्दे पर वह पिछले कई वर्षों से आलेखों, पत्रकारवार्ताओं और विभिन्न माध्यमों से उठाते भी रहे है. आलोक अग्रवाल का मानना है कि वास्तव में 1979 में बनी नर्मदाघाटी विकास परियोजना के साथ ही नर्मदा के पानी का अधिक से अधिक दोहन करने की मंशा से ही विनाश की इबारत लिखने की कहानी शुरू हो गई थी. ये परियोजना थी 30 बड़े, 135 मझोले और 3000 छोटे-छोटे बांधों के निर्माण की, बड़े बांध, बिजली और पानी के बड़े वादों के साथ ला रहे थे विस्थापन और पर्यावरण का विनाश. इसी विनाश के विरोध में हमने नर्मदा बचाओ आंदोलन की शुरूआत कर की थी, जो सरदार सरोवर बांध की खिलाफत से शुरू होकर महेश्वर, ओंकारेश्वर, इंदिरा सागर, बरगी, मान और अपर वेदा पर फैला. बड़ें बांधों से विनाश का अंदाजा सिर्फ एक उदाहरण से लगाया जा सकता है, कि इंदिरा सागर बांध बनाने से ही एक लाख एकड़ से ज्यादा जंगल डूब गया, सैकड़ों का गांवों का इतिहास, संस्कृति, जैवविविधता सब खत्म हो गए. हमने जरूरत और लालच में अंतर नहीं समझा, इसीलिए नर्मदा के संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया. हमें हाल में चमोली की आपदा से सबक लेना चाहिए, जहां बड़े बांध बड़ी तबाही का सबब बन रहे हैं.नर्मदा का सीना छलनी कर रहे रेत के लुटेरे
मध्यप्रदेश में नर्मदा किनारे का शायद ही कोई ऐसा जिला हो, जो नदी का सीना छलनी कर रेत की लूट में लिप्त न हो. बात केवल नर्मदा की ही नहीं, बल्कि राज्य में बहने वाली चंबल नदी हो या बेतवा, रेतमाफिया ने किसी भी नदी को नहीं छोड़ा. सरकार भी इस रेत माफिया के आगे लाचार नजर आती है या यूं कहें कि नेता-अफसर और माफिया के गठजोड़ से यह खुली लूट मची हुई है. अवैध उत्खनन की वजह से नर्मदा होशंगाबाद ही नहीं, कई जगह से अपनी धारा का रास्ता बदल रही है.
जहर बन रहा पानी
खेतों में फसलों की पैदावार बढ़ाने के लिए इस्तेमाल की जा रही रासायनिक खाद और पेस्टीसाइड मिला पानी नर्मदा में मिलता है, जो उसे जहरीला बना रहा है. इसी पानी को करोड़ों लोग पी रहे हैं और विभिन्न बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. इसके अलावा नर्मदा किनारे के इलाकों में लगी फैक्ट्रियों का रसायन मिला और प्रदूषित पानी नर्मदा को भी गंदा और जहरीला कर रहा है.
कैसे संरक्षित हो नर्मदा
नर्मदा नदी को कैसे संरक्षित किया जाए. इस सवाल के जवाब में इसपर पर्यावरणविद् राजेश चतुर्वेदी कहते हैं कि सबसे पहले नर्मदा नटों पर अवैध उत्खनन रोका जाए. दूसरे गांवों, शहरों से निकलने वाले गंदे पानी का कोई और इस्तेमाल हो, उसे नर्मदा में न मिलने दिया जाए. तीसरा नदी के किनारों पर चीड़ और बांस जैसे पेड़ों को बड़े पैमाने पर लगाने पर विचार होना चाहिए. पर्योवरण सुधार के बड़े काम में औद्योगिक घरानों को भी भागीदार बनाया जाना चाहिए. इसके अलावा विकास के लिए छोटे बांधों पर सरकारें जोर दें, न कि बड़े बांध बनाने पर.