छत्तीसगढ़ी विशेष – चिंता के आगी मा झन जरय चोला

छत्तीसगढ़ी विशेष – चिंता के आगी मा झन जरय चोला


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दुनिया मा अइसे कोनो समाज नइये जेन अनीत के रद्दा ला अपनाही. नीत – कुनीत ला सबो झन जानथें अउ पहचानथें. अब तोर उप्पर हे ते कोन डहर चलना चाहत हर.

खटिया मा सुते सुते कंगलू केहे लगिस टंगाए राह रे चमड़ा अउ मास . नींद नइ परत रिहिस ते छटपट छटपट करत राहय. बरेंडी के कांड़ ला घेरी पइत गिनत राहय अउ अपन पाछू दिन ला सुरता मा लान लान के रोवत राहय. कइसे दिन राहय अउ अब का दिन आगे हावय. उही सुरूज , उही चंदा . उही घाम अउ उही पियास एमन काबर नइ बदल पाइन ईश्वर जानय. नींद परती असन लागय तहां ले फेर झकनका जावय इही ताय चिंता के आगी अपने अपन जरत, भुंजावत हे.

जेन डाहर ला देख तेन डहर ओखरे गोठ
नानपन के सुखियार. बात कहत तियारी करइया हाजिर हो जाय. चलते चलत इसारा करय ततके मा संगवारी मन आगू पाछू करत राहंय. बइठे बिगारी करा लेना ओखर बर डेरी हाथ के काम राहय. पढ़िस – लिखिस ततके भर ला जान. कांही पूछ देबे ततके मा अकबका जावय. अइसनहो पढ़ई लिखई का काम के. खात – पियत घर परिवार चाहतिस ते बिदेस घलो जा सकत रिहिस फेर कइथे नहीं कुसंग से हानि ? ओसनहे होगे. अभरतिस मोहाटी मेर तहां ले भइगे. आने ताने करे लागय घर परिवार कलेचुप बोटोर बोटोर देख राहंय. आठो काल बारो महिना के बुता बना डरिस. आज देखले डेरा कुंडी के नइये ठिकाना.

संजकेरहे आतेच ते बन जतिस गापूंजी खरकत टाईम नइ लागय. बिगड़े के तें काय कर लेबे. घर के बात घरे मा राहय अइसे काहत-काहत सियनहा घलो हकरगे राहय. बने देह पांव वाला मार खलखल ले होगे राहय. गांव गंवतरि होवय चाहे शहर डहर सबो कोती बिगड़त के साथी कोनो नइ होवय. काठा दू काठा धान ला डोहारत – डोहारत कोठी के काठी परगे फेर जेला नइ सुधरना हे तेखर तें काय कर लेबे. ये बात ला एके घर के आवय अइसे झन जानय ये सबो घर के किस्सा होगे हे. काम करइया मेर काम के कमी नइये अउ नइ कमइया बर कोनो कामेच नइये. अब तो घरउधिया बुता बर घलाव साक्षात्कार होवे लागिस. सबो जनम पतरी ला जानना अउ मानना अइसे आज काल के दिन होगे हे. संजकेरहे कोनो ला कतको बलाले तोला घेपंय नहीं.

एदे – वोदे काए तेला ते जान
कइझन ला अतको चिंता नइ राहय के काली का होही. अपन मरजाद ला घलो नइ राखे सकंय. घर अउ बाहिर दुनो बरोबर नइ होए सकय. पहिली ले अपन बनऊकी जेन नइ बनाए सकिस तेकर तें का कर लेबे. एकरे सेती केहे गेहे सुनव जन के करव मन के. अपन मन मंदिर मा ईश्वर के वास हावय अइसे जान के व्यवहार मा उतारना चाही. अक्कल के पहलवान ला कुस्ती मा कोनो नइ हरा सकंय. सम्हरे मा अउ सहराय मा कतका फरक हे तेला समाज गंगा मा रहिके जानना चाही. दुनिया मा अइसे कोनो समाज नइये जेन अनीत के रद्दा ला अपनाही. नीत – कुनीत ला सबो झन जानथें अउ पहचानथें. अब तोर उप्पर हे ते कोन डहर चलना चाहत हर. आज अउ अभिच्चे मन ला समझाले पल्ला झन भागय. काली जुवर तोर बरनवा सुरुज उदित होही. अपन सेती सोंचना अउ परके सेती जूझना घलव जमाना मा राखे जावत देखे गेहे. जमाना के हिसाब लेवइया कोने तोला काय करना हे. अपन सद्‌गति बर उम्मर भर जीना हे. बस अतके सोंच बनाले. ( डिसक्लेमर – लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं और उनके अपने विचार हैं.)








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