दीपक पांडेय / खरगोन: खरगोन सहित मध्यप्रदेश के कई ग्रामीण क्षेत्रों में गिरगिट को ‘वर्षा मापक यंत्र’ माना जाता है. जहां आज का विज्ञान सेटेलाइट और डॉप्लर रडार से बारिश का पूर्वानुमान निकालता है, वहीं गांवों में किसान गिरगिट की चाल और रंग देखकर खेत जोतना शुरू कर देते हैं.
गांवों में आज भी बुजुर्ग किसान गिरगिट के रंग से यह तय करते हैं कि इस बार मानसून कैसा रहेगा. उनके लिए गिरगिट सिर्फ एक जीव नहीं, परंपरा और अनुभव का हिस्सा है.
बारिश से पहले गिरगिट का रंग बदलता क्यों है?
डॉ. रवींद्र रावल बताते हैं कि गिरगिट की त्वचा में मौजूद इरीडोफोर और क्रोमेटोफोर परतें वातावरण में मौजूद नमी, तापमान और रोशनी के अनुसार रंग बदलती हैं. जैसे ही बारिश की संभावना बनती है, गिरगिट की त्वचा हरा और पूंछ लाल हो जाती है.
अगर पूंछ लाल और शरीर हरा हो, तो समझिए आंधी के साथ बारिश होगी.
अगर पूंछ लाल नहीं है, तो केवल तेज पानी बरसेगा, पर तूफान नहीं आएगा.
धार्मिक ग्रंथों से लेकर जीव विज्ञान तक, गिरगिट हमेशा खास रहा है
डॉ. बसंत सोनी के अनुसार, धार्मिक ग्रंथों और लोक परंपराओं में भी बताया गया है कि प्राकृतिक आपदाओं का पूर्वाभास सबसे पहले जानवरों को होता है. गिरगिट का रंग बदलना इस बात का संकेत है कि वह वातावरण में होने वाले नमी और दबाव के परिवर्तन को पहले ही महसूस कर लेता है.
जहां एक ओर मोबाइल ऐप्स और मौसम वेबसाइटें कभी-कभी गलत साबित होती हैं, वहां गांव के किसान आज भी कहते हैं कि गिरगिट पीला हुआ है बेटा, दो दिन में बुआई करना, बारिश पक्की है.
वैज्ञानिक नजरिया और लोक विश्वास …दोनों सही हैं!
गिरगिट का यह रंग बदलना सिर्फ अंधविश्वास नहीं, बल्कि वैज्ञानिक तथ्य है जिसे अब इकोलॉजिकल इंडिकेटर के रूप में भी स्वीकार किया जाने लगा है.