यह परंपरा सदियों पुरानी है. रात के समय भगवान शिव को विश्राम देने के लिए की जाने वाली यह आरती अत्यंत पवित्र मानी जाती है. मंदिर के नियमों के अनुसार, रात लगभग नौ बजे जब अंतिम आरती के बाद मंदिर बंद होता है, तब यह शयन आरती होती है. इस आरती में भगवान शिव को रेशमी वस्त्र पहनाए जाते हैं, उन्हें चंदन, फूल, और भोग अर्पित किया जाता है. भगवान को विश्राम की मुद्रा में स्थापित कर उनके पास दीप जलाकर मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं. यह संपूर्ण विधि गुप्त होती है — इसका साक्षी कोई भक्त नहीं बन सकता. माना जाता है कि यह एकांत साधना का समय है, जब ईश्वर अपने शेष दिन के कार्यों से विराम लेकर विश्राम में जाते हैं.
श्रद्धालुओं के मन में यह जिज्ञासा अवश्य उठती है कि जब भगवान शिव की अन्य सभी आरतियों में शामिल होने का सौभाग्य मिलता है, तो शयन आरती में क्यों नहीं? इसका उत्तर धार्मिक परंपरा में छिपा है. माना जाता है कि शयन काल में ईश्वर के निज स्वरूप की उपासना अत्यंत गोपनीय होती है और इसमें किसी बाहरी हस्तक्षेप से दिव्यता भंग हो सकती है. इसीलिए इस पूजा को पुजारी अकेले करता है और भगवान के शयन पश्चात मंदिर के द्वार पूर्ण रूप से बंद कर दिए जाते हैं.
शयन आरती के पीछे आध्यात्मिक महत्व भी है. यह केवल एक पूजा नहीं बल्कि एक भावनात्मक और धार्मिक जुड़ाव है — जैसे कि माता अपने शिशु को सुलाती है, ठीक वैसे ही यह आरती भगवान शिव को विश्राम देने के भाव से की जाती है. यह ईश्वर और भक्त के बीच के अंतर को भी दर्शाती है — जहां दिनभर की भागदौड़, उत्सव, भक्ति और शोर के बाद रात को एकांत, मौन और आत्मिक शांति का समय होता है.
ओंकारेश्वर की यह परंपरा बताती है कि सनातन धर्म में पूजा केवल दर्शन तक सीमित नहीं, बल्कि हर पल और हर प्रक्रिया का एक गहरा आध्यात्मिक अर्थ होता है. इस आरती को न देख पाना कोई नुकसान नहीं, बल्कि उस ईश्वर की उस रहस्यमयी सत्ता को स्वीकार करना है, जो दिखती नहीं लेकिन हर पल अनुभूत होती है, जो भी भक्त ओंकारेश्वर आता है, वह इस परंपरा के बारे में जरूर जानता है और श्रद्धा से दूर खड़े रहकर उस शयन आरती की दिव्यता को महसूस करता है. यही ओंकारेश्वर की विशेषता है — जहां पूजा दिखावे की नहीं, आत्मा की होती है.