क्यों चढ़ाते हैं भक्त दूर-दूर से निशान?यह प्रश्न हर किसी के मन में उठता है कि आखिर भक्त इतनी दूर से, पैदल चलकर, अपने कंधों पर निशान लेकर क्यों आते हैं? इस परंपरा को समझने के लिए हमें दादाजी धूनीवाले के जीवन और उनके खंडवा आगमन की कहानी को जानना होगा.
दादाजी भक्त लव जोशी बताते है. वर्ष 1930 में, इसी परिक्रमा के दौरान दादाजी खंडवा पधारे थे. भवानी माता मंदिर के पास स्थित वर्तमान दादाजी मंदिर का स्थान उस समय खाली था. दादाजी ने वहां अपना ठिकाना बना लिया. भजन-कीर्तन होते थे, प्रसादी बनती थी और श्रद्धालु उसमें शामिल होते थे. इसी दौरान खंडवा की एक समृद्ध परिवार की श्रद्धालु सेठानी पार्वती बाई, जिनके नाम पर आज पार्वती बाई धर्मशाला है, दादाजी की परम भक्त थीं. दादाजी जब अपनी नर्मदा परिक्रमा आगे बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे, तब पार्वती बाई जी ने उनसे आग्रह किया कि अगले दिन का भोज उनकी तरफ से हो और दादाजी एक दिन और रुकें, ताकि वे श्रद्धापूर्वक पूजन-अर्चन और सेवा कर सकें. पार्वती बाई जी की अटूट श्रद्धा को देखते हुए दादाजी ने एक दिन रुकने की सहमति दे दी. उसी दिन दादाजी खंडवा में भवानी माता मंदिर के पास ही अपने भक्तों के साथ विश्राम करने के बाद वहीं समाधिष्ट हो गए. यह घटना 1930 की है.
जहां भी दादाजी बैठते थे, वहां एक धूनी (अग्नि कुंड) जला देते थे, जो निरंतर प्रज्वलित रहती थी. 1930 से वह धूनी ’माई’ कहलाती है और निरंतर जल रही है. इसके अलावा, अखंड दीपक भी निरंतर जल रहे हैं, और दादाजी की रसोई की चूल्हे की अग्नि भी 1930 से लगातार जल रही है. दादाजी अग्नि और नर्मदा माई (जल तत्व) को साथ लेकर चलते थे, इन दोनों तत्वों का उनके जीवन में विशेष महत्व था. धूनी की भस्म (राख) से दादाजी लोगों की अनेक व्याधियों, बीमारियों और संकटों को दूर करते थे. वे भस्म लगाने या खाने को कहते थे, जिससे लोगों के स्वास्थ्य में सुधार होता था और गंभीर बीमारियां तक ठीक हो जाती थीं.
दादाजी के अनेक चमत्कार हैं, जो आज भी भक्तों द्वारा सुनाए जाते हैं. तीन-तीन पीढ़ियों से जुड़े परिवार बताते हैं कि कैसे दादाजी के आशीर्वाद और मार्गदर्शन से उनके परिवार सुखी और संस्कारवान बने. निशान चढ़ाने का अपना एक महत्व, श्रद्धा, आस्था और विश्वास है. गुरु पूर्णिमा का यह उत्सव दादाजी के खंडवा में मुख्य समाधि होने के कारण अत्यंत उत्साह के साथ मनाया जाता है, जिससे खंडवा को एक विशेष नाम और पहचान मिली है.
दादाजी भक्त लव जोशी बताते हैं कि दादाजी के प्रति यह अटूट आस्था और निशान यात्रा की परंपरा ही भक्तों को दादाजी से जोड़े रखती है, और उनके जीवन में दादाजी के आशीर्वाद से अनेकों चमत्कार घटित होते हैं. यह सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि गुरु और शिष्य के बीच के गहरे प्रेम और विश्वास का प्रतीक है