इस मंदिर में फिर उमड़ी श्रद्धा की गंगा! गुरु पूर्णिमा पर लगता है भक्तों का तांता, निशान चढ़ाने से पूरी होती मन्नत

इस मंदिर में फिर उमड़ी श्रद्धा की गंगा! गुरु पूर्णिमा पर लगता है भक्तों का तांता, निशान चढ़ाने से पूरी होती मन्नत


गुरु पूर्णिमा स्पेशल. खंडवा के दादाजी धूनीवाले मंदिर में उमड़ता आस्था का सैलाबगुरु पूर्णिमा का पावन पर्व खंडवा के दादाजी धूनीवाले मंदिर में एक अद्वितीय और भव्य रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर देश के कोने-कोने से, खासकर महाराष्ट्र, मुंबई, दिल्ली और अन्य राज्यों से लाखों श्रद्धालु पैदल यात्रा करते हुए, अपने कंधों पर रंग-बिरंगे निशान लिए दादाजी महाराज को अर्पित करने पहुंचते हैं. यह निशान चढ़ाने की परंपरा सदियों पुरानी है और इसके पीछे एक गहरा इतिहास और अटूट आस्था जुड़ी हुई है, जो इस मंदिर को एक विशेष पहचान देती है.

क्यों चढ़ाते हैं भक्त दूर-दूर से निशान?यह प्रश्न हर किसी के मन में उठता है कि आखिर भक्त इतनी दूर से, पैदल चलकर, अपने कंधों पर निशान लेकर क्यों आते हैं? इस परंपरा को समझने के लिए हमें दादाजी धूनीवाले के जीवन और उनके खंडवा आगमन की कहानी को जानना होगा.

अवधूत संत दादाजी धूनीवाले खंडवा की पहचान हैं. उनके नाम से खंडवा को एक अलग गौरव प्राप्त है. दादाजी ने यहीं, खंडवा में समाधि ली थी. उनके गुरु महाराज, गौरी शंकर महाराज जी का समाधि स्थल होशंगाबाद के पास है. दादाजी महाराज निरंतर नर्मदा परिक्रमा किया करते थे. इस परिक्रमा के दौरान उनके साथ श्रद्धालु भक्त भी चलते थे, जिनमें बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी और पैदल चलने वाले सभी शामिल होते थे. रास्ते में जो भी गांव पड़ते थे, वहां के लोग श्रद्धापूर्वक अनाज और अन्य सामग्री दान करते थे. दादाजी जहां भी शाम होती, किसी खाली खेत या मंदिर के पास अपना चूल्हा जलाकर भोजन बनाते थे और सभी भक्तों को प्रसादी मिलती थी.

दादाजी भक्त लव जोशी बताते है. वर्ष 1930 में, इसी परिक्रमा के दौरान दादाजी खंडवा पधारे थे. भवानी माता मंदिर के पास स्थित वर्तमान दादाजी मंदिर का स्थान उस समय खाली था. दादाजी ने वहां अपना ठिकाना बना लिया. भजन-कीर्तन होते थे, प्रसादी बनती थी और श्रद्धालु उसमें शामिल होते थे. इसी दौरान खंडवा की एक समृद्ध परिवार की श्रद्धालु सेठानी पार्वती बाई, जिनके नाम पर आज पार्वती बाई धर्मशाला है, दादाजी की परम भक्त थीं. दादाजी जब अपनी नर्मदा परिक्रमा आगे बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे, तब पार्वती बाई जी ने उनसे आग्रह किया कि अगले दिन का भोज उनकी तरफ से हो और दादाजी एक दिन और रुकें, ताकि वे श्रद्धापूर्वक पूजन-अर्चन और सेवा कर सकें. पार्वती बाई जी की अटूट श्रद्धा को देखते हुए दादाजी ने एक दिन रुकने की सहमति दे दी. उसी दिन दादाजी खंडवा में भवानी माता मंदिर के पास ही अपने भक्तों के साथ विश्राम करने के बाद वहीं समाधिष्ट हो गए. यह घटना 1930 की है.

निशान और अखंड अग्नि की परंपरादादाजी को मानने वाले भक्त, जिनकी आस्था विशेषकर नर्मदा किनारे, महाराष्ट्र (नागपुर, पांढुर्णा, छिंदवाड़ा, बैतूल, अमरावती) और देशभर के अन्य स्थानों (दिल्ली, भोपाल, इंदौर, बॉम्बे) में है, वे गुरु पूर्णिमा से एक पूर्णिमा पहले से ही दादाजी के नाम का स्मरण करते हुए एक निशान बनाते हैं. यह निशान लकड़ी पर बनी एक ध्वजा होती है, जिस पर ’ॐ’ या ’जय श्री दादाजी’ लिखा होता है. इसे अपने कंधों पर रखकर भक्त दादाजी का भजन-संकीर्तन करते हुए, जैसे ”भज लो दादाजी का नाम, भज लो हरिहर जी का नाम, रक्षा करो कुमारी श्री दादाजी धूनीवाले,” पैदल यात्रा करते हुए खंडवा पहुंचते हैं. यह परंपरा 1930 से निरंतर चली आ रही है.

जहां भी दादाजी बैठते थे, वहां एक धूनी (अग्नि कुंड) जला देते थे, जो निरंतर प्रज्वलित रहती थी. 1930 से वह धूनी ’माई’ कहलाती है और निरंतर जल रही है. इसके अलावा, अखंड दीपक भी निरंतर जल रहे हैं, और दादाजी की रसोई की चूल्हे की अग्नि भी 1930 से लगातार जल रही है. दादाजी अग्नि और नर्मदा माई (जल तत्व) को साथ लेकर चलते थे, इन दोनों तत्वों का उनके जीवन में विशेष महत्व था. धूनी की भस्म (राख) से दादाजी लोगों की अनेक व्याधियों, बीमारियों और संकटों को दूर करते थे. वे भस्म लगाने या खाने को कहते थे, जिससे लोगों के स्वास्थ्य में सुधार होता था और गंभीर बीमारियां तक ठीक हो जाती थीं.

अवधूत संत और उनके चमत्कारदादाजी एक अवधूत संत थे, जो पूर्ण रूप से मोह-माया से दूर थे. उन्होंने वस्त्रों और अन्य भौतिक चीजों का त्याग कर दिया था. उन्हें भगवान शिव का अवतार माना जाता है. उनके शिष्य छोटे दादाजी ने 1930 के बाद उनकी पूरी व्यवस्था को संभाला, नियमावली बनाई और ट्रस्ट का गठन किया. आज दादाजी का मंदिर एक विशाल स्थान में बदल गया है, और एक दिव्य मंदिर के निर्माण की योजना भी चल रही है, जिसमें जिला प्रशासन, राज्य शासन और विभिन्न संगठन मिलकर काम कर रहे हैं.

दादाजी के अनेक चमत्कार हैं, जो आज भी भक्तों द्वारा सुनाए जाते हैं. तीन-तीन पीढ़ियों से जुड़े परिवार बताते हैं कि कैसे दादाजी के आशीर्वाद और मार्गदर्शन से उनके परिवार सुखी और संस्कारवान बने. निशान चढ़ाने का अपना एक महत्व, श्रद्धा, आस्था और विश्वास है. गुरु पूर्णिमा का यह उत्सव दादाजी के खंडवा में मुख्य समाधि होने के कारण अत्यंत उत्साह के साथ मनाया जाता है, जिससे खंडवा को एक विशेष नाम और पहचान मिली है.

दादाजी भक्त लव जोशी बताते हैं कि दादाजी के प्रति यह अटूट आस्था और निशान यात्रा की परंपरा ही भक्तों को दादाजी से जोड़े रखती है, और उनके जीवन में दादाजी के आशीर्वाद से अनेकों चमत्कार घटित होते हैं. यह सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि गुरु और शिष्य के बीच के गहरे प्रेम और विश्वास का प्रतीक है



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