अनुज गौतम, सागर: सागर ज़िले का देवरी कभी बुंदेलखंड का चमकता सितारा था. कारोबार, संस्कृति और रौनक से भरा हुआ एक नगर जहां दूर-दूर से व्यापारी आते थे. लेकिन अप्रैल 1813 की एक दोपहर ने सब कुछ बदल दिया.
गढ़ाकोटा के दीवान जालिम सिंह ने 5000 सैनिकों के साथ देवरी को घेर लिया. चारों ओर से बंद इस शहर में कोई रास्ता नहीं बचा था. तभी एक घर के बगीचे में आग भड़की. वो आग जो शायद किसी एक चिंगारी से निकली थी, देखते ही देखते पूरी देवरी को निगल गई. बारिश महीनों से नहीं हुई थी. हर घर, हर पेड़, हर दरवाज़ा सूखा पड़ा था. और जैसे ही आग उठी, तेज़ आंधी चल पड़ी, आग अब रुकने वाली नहीं थी.
शहर के किले में ‘श्रीमंत‘ नाम का एक बच्चा अपनी माँ के साथ था. आग वहां भी पहुँच गई. उनके घर में बारूद रखा था, धमाका हुआ, दीवारें गिरीं और लपटों ने सब कुछ घेर लिया. माँ ने आख़िरी कोशिश की, लेकिन आग तेज़ थी. फिर आई तुलसी कुरमिन… एक दाई, जो किसी फ़रिश्ते से कम नहीं थी. उसने जलती हवेली से बच्चे को खींचा, गोद में उठाया और नदी की ओर भागी. कभी ज़मीन पर दौड़ती, कभी घुटनों के बल. आख़िरकार उसने बच्चे को व्यापारी हरीराम को सौंपा. बच्चा बच गया. तुलसी वहीं गिर पड़ी और मौके पर उसकी मौत हो गई.
उस दिन देवरी का हर दरवाज़ा, हर घर, हर आंगन जल गया. घोड़े, ऊँट, हाथी कुछ भी नहीं बचा. 30,000 लोग ज़िंदा जल गए. जो बचे, वे केवल खोखले लोग थे बिना घर, बिना परिवार, बिना भविष्य.
पूरे शहर में सिर्फ एक जगह थी, जहां आग की एक लपट तक नहीं पहुँची… खांडेराव मंदिर. जिसे धोंडू दत्तात्रेय ने बनवाया था. ना धुआँ, ना कालिख, ना कोई दरार. सब जल गए, मंदिर वैसा का वैसा खड़ा रहा. लोगों ने कहा कि “ये देवों की पुरी है“. और देवरी, देवपुरी बन गई.
कुछ दशक बाद लोग लौटे, दोबारा बसे. लेकिन वो रात, वो हादसा आज भी देवरी की मिट्टी में जिंदा है. हर साल चंपा छठ पर लोग मंदिर में अग्निकुंड पार करते हैं, मानो उस त्रासदी को श्रद्धांजलि देते हों.
सागर यूनिवर्सिटी के पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग के अध्यक्ष प्रो. नागेश दुबे बताते हैं कि आज का देवरी नगर कभी रामगढ़ और उजरगढ़ के नाम से जाना जाता था. इस ऐतिहासिक नगर को चंदेल वंश के राजा ने बसाया था और इसमें लगभग 750 मोजें (गांव) शामिल थे. देवरी न सिर्फ सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध था, बल्कि व्यापार के लिहाज़ से भी बुंदेलखंड का एक प्रमुख केंद्र था.