18 जुलाई, 2025 राजस्थान के बांसवाड़ा का मानगढ़ धाम। यहां सुबह 6 बजे से हजारों की संख्या में आदिवासी इकट्ठा होने लगे थे। सुबह 10 बजे तक यहां 50 हजार से ज्यादा आदिवासी जमा हो गए। ये आदिवासी मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र से आए थे। इस कार्यक्
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क्षेत्रफल और जिलों की संख्या के हिसाब से तो मध्यप्रदेश, राजस्थान के बाद दूसरे नंबर पर है लेकिन आदिवासियों की संख्या के हिसाब से सबसे ज्यादा है।
भील प्रदेश की मांग करने वाले संगठनों की ओर से इन जिलों को शामिल करने का प्रस्ताव है।
दरअसल, ये पहला साल नहीं है जब आदिवासियों ने अलग भील प्रदेश की मांग उठाई है। मानगढ़ में इसे लेकर कई सालों से ये आयोजन किया गया। क्या मध्यप्रदेश का आदिवासी समुदाय भी अलग भील प्रदेश चाहता है, क्या इस समुदाय से आने वाले प्रदेश के नेता भी ऐसा ही सोचते हैं, अगर भील प्रदेश बना तो उस प्रदेश की क्या तस्वीर हो सकती है-
पढ़िए इस रिपोर्ट में-
सबसे पहले जानिए… आखिर कब से शुरू हुई ये मांग
भील प्रदेश की मांग का इतिहास 108 साल पुराना है। उस समय राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में रियासती शासकों और सामंतों का राज था। ये शासक अंग्रेजों के साथ मिलकर आदिवासियों का जमकर शोषण करते थे।
आदिवासियों से बेगार लेना, उन पर भारी लगान लगाना, उनकी जमीनों पर कब्जा करना और उनके जल-जंगल-जमीन के अधिकारों का हनन करना आम बात थी।

17 नवंबर 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मानगढ़ पहाड़ी पर वार्षिक मेला और गोविंद गुरु का जन्मदिन मनाने के लिए लाखों की संख्या में आदिवासी भगत एकत्रित हुए थे।
अंग्रेज सरकार ने इस शांतिपूर्ण सभा को एक विद्रोह मान लिया। 16 नवंबर 1913 की शाम तक, अंग्रेज सिपाहियों ने मेवाड़ भील कोर, राजपूत रेजिमेंट, वेलेजली राइफल्स और जाट रेजिमेंट की सेना के साथ मानगढ़ पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया।
1500 से ज्यादा निहत्थे आदिवासियों को गोलियों से भून दिया था
कर्नल शटन के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने 17 नवंबर 1913 की सुबह लगभग 8:30 बजे से निहत्थे आदिवासियों पर अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। अंग्रेजों के पास आधुनिक बंदूकें और मशीन गन थीं। इस नरसंहार में महिलाओं और बच्चों सहित 1,500 से अधिक भील आदिवासी शहीद हो गए। यह घटना जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) से भी पहले हुई थी और उससे भी अधिक भीषण थी। इस घटना को ‘आदिवासी जलियांवाला’ के रूप में भी जाना जाता है।
इन 4 राज्यों में देश के 35 प्रतिशत आदिवासी
देश की आजादी के बाद से भील समुदाय अनुसूचित जनजाति के विशेषाधिकारों के साथ एक अलग राज्य की मांग करता रहा है। भील प्रदेश की मांग कर रहे 3 करोड़ आदिवासी मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के करीब 49 जिलों में निवास करते हैं।

भील प्रदेश की मांग को लेकर नेता क्या सोचते हैं-
शहरों में बारिश होती है तो यहां सिर्फ छींटे पहुंचते हैं
भारतीय ट्राइबल पार्टी (BTP) से बांसवाड़ा सांसद राजकुमार रोत का कहना है कि आदिवासियों के विकास के लिए भील प्रदेश का बनना बहुत जरूरी हो गया है। इन राज्यों में आदिवासी क्षेत्रों पर किसी ने दशकों से ध्यान नहीं दिया है। ये क्षेत्र सभी मामलों में सबसे पिछड़े हुए हैं।
मौजूदा राज्यों की राजधानियां (जैसे भोपाल, जयपुर, अहमदाबाद, मुंबई) इन आदिवासी इलाकों से काफी दूर हैं, जिससे इन क्षेत्रों पर कम ध्यान दिया जाता है और संसाधनों का बंटवारा भी ठीक से नहीं हो पाता।
रोत कहते हैं कि बारिश का एक पैटर्न होता है।

आदिवासी विकास के लिए आवंटित पैसा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है, वास्तविक प्रगति नहीं हुई। इसलिए, एक अलग भील प्रदेश, जिसकी अपनी राजधानी और शासन होगा, उसी से उन मुद्दों का समाधान निकल सकता है, जिनका सामना आदिवासी समुदाय दशकों से कर रहा है।
जिनमें भूमि संबंधी समस्याओं का हल, अनुसूची 5 और अनुसूची 6 का सही से लागू होना, आरक्षण का उचित क्रियान्वयन, कुपोषण से निपटना और आदिवासियों के पलायन को रोकना शामिल है।
जो जिला शामिल होना चाहेगा, सिर्फ उसे रखेंगे
कम आदिवासी आबादी वाले क्षेत्रों (जैसे इंदौर) के संबंध में वह स्पष्ट करते हैं कि उन्हें शामिल करने का निर्णय एक समिति द्वारा किया जाएगा। केवल उन क्षेत्रों को शामिल किया जाएगा जहां 50-70% आबादी आदिवासी है और शामिल होने को तैयार है। वह यह भी बताते हैं कि ब्रिटिश-युग के रिकॉर्ड ने इन क्षेत्रों को भील बहुमत वाले क्षेत्रों के रूप में पहचाना था।

अंग्रेजों ने 1896 में भील कंट्री के नाम से नक्शा तैयार किया था। इसमें गुजरात, राजस्थान और मध्य भारत के हिस्सों को बताया गया था। हालांकि, इसमें इंदौर को शामिल नहीं किया था।
मैं मानगढ़ आंदोलन से अलग– कमलेश्वर डोडियार
मध्यप्रदेश के इकलौते आदिवासी निर्दलीय विधायक कमलेश्वर डोडियार का कहना है कि वे मानगढ़ धाम नहीं गए थे। वे इस आंदोलन से अपने आप को अलग रखते हैं। उनका कहना है कि मैं भील प्रदेश की मांग मध्यप्रदेश विधानसभा में उठाऊंगा। मानगढ़ में राजस्थान के आदिवासी नेता अपनी राजनीति चमकाते हैं। अभी मैं जनजागरण का काम कर रहा हूं। विधानसभा अध्यक्ष को पत्र भी लिखे हैं।
आदिवासी कांग्रेस-भाजपा दोनों को समझ चुके-जयस
मध्यप्रदेश में जयस के प्रदेश अध्यक्ष लोकेश का कहना है कि भील प्रदेश की मांग को लेकर राजनीतिक रणनीति तैयार हो चुकी है और इसे संसद के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं में भी उठाया जाएगा। उनका दावा है कि आदिवासी अब कांग्रेस और भाजपा दोनों को समझ चुके हैं और अपने प्रतिनिधियों को आगे बढ़ा रहे हैं। हालांकि, मध्यप्रदेश से इस आंदोलन में अभी तक कोई बड़ा राजनीतिक चेहरा सामने नहीं आया है जो इसे आवश्यक गति दे सके।

मानगढ़ में हुए आयोजन में बड़ी तादाद में आदिवासी समाज के लोग आए थे।
एक्सपर्ट से समझिए क्या है भील प्रदेश में 4 बड़ी अड़चन
1. गोंडवाना की पुरानी मांग और नए राज्य की चुनौती
वरिष्ठ पत्रकार गिरिजा शंकर का कहना है कि मध्यप्रदेश में पहले भी गोंडवाना राज्य की मांग उठ चुकी है। जब साल 2000 में मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ अलग हुआ, तब गोंडवाना राज्य बनाने का प्रस्ताव भी आया था, लेकिन उस समय इसे खारिज कर दिया गया। इतिहास बताता है कि सिर्फ राज्य की सीमाएं बदलने से ही समुदायों का विकास नहीं हो जाता। असली चुनौती विकास के सही तरीकों को अपनाना और उनकी प्राथमिकताओं को समझना है।
2. आदिवासी समाज की विविधता भी एक चुनौती
गिरिजा शंकर कहते हैं कि अगर सिर्फ ‘भील-माला’ (भील और उसके आसपास का क्षेत्र) वाला भील प्रदेश बनता है, तो मध्यप्रदेश में रहने वाले अन्य बड़े आदिवासी समूहों जैसे गोंड, कोरकू, और सहरिया का क्या होगा?

3. राज्य पुनर्गठन आयोग की जरूरत
अगर सिर्फ एक ही राज्य को बांटना हो तो राज्य पुनर्गठन आयोग की दरकार नहीं होती, लेकिन जब एक से ज्यादा राज्यों की सीमाओं को बदलकर नया राज्य बनाना हो, तो यह फैसला केवल केंद्र सरकार ही ले सकती है। इसके लिए एक विशेष राज्य पुनर्गठन आयोग बनाना पड़ता है, और यही आयोग इस पर काम करता है। यह भारत के संविधान में तय की गई व्यवस्था है।
4. एक से अधिक राज्यों के कारण पेंचीदा मामला
जब छत्तीसगढ़ बना था और नया मध्यप्रदेश बना, तब उत्तर प्रदेश के झांसी के कुछ हिस्सों को मध्यप्रदेश में लाने की मांग हुई थी, लेकिन राज्य पुनर्गठन आयोग ने इसे नहीं माना क्योंकि इसमें दो राज्यों की सीमाएं शामिल थीं। इसी तरह बुंदेलखंड राज्य की मांग, जिसमें मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से शामिल हैं, आज तक पूरी नहीं हो पाई है, क्योंकि इसके लिए भी राज्य पुनर्गठन आयोग की आवश्यकता होगी। यह दिखाता है कि कई राज्यों के हिस्सों को जोड़कर नया राज्य बनाना कितना जटिल है।

मानगढ़ में लगातार चार साल से इस आंदोलन ने ज्यादा तेजी पकड़ी है।
बिना अलग प्रदेश के भी तरक्की के 4 तरीके
1. बुनियादी जरूरतों को समझना और पूरा करना
गिरिजा शंकर का मानना है कि भील प्रदेश की मांग ज्यादा उपयोगी नहीं। आदिवासियों के विकास के लिए केवल नया राज्य बनाना पर्याप्त नहीं है। इसके बजाय, उनकी कुछ मूलभूत जरूरतों को पूरा करना और विकास की सही दिशा में काम करना जरूरी है, क्योंकि ये सच्चाई है कि आदिवासी समाज को उतना विकास नहीं हुआ जितना होना चाहिए था।
2. ट्राइबल प्लान और बजट का सही उपयोग
उनका कहना है कि सरकार पर दबाव बनाना चाहिए कि आदिवासियों के विकास के लिए आवंटित ‘ट्राइबल प्लान’ का पैसा ठीक से खर्च हो। झाबुआ में बनने वाला स्कूल शिवपुरी में नहीं बन सकता, क्योंकि शिवपुरी के सहरिया आदिवासी कुपोषण के शिकार हैं और उनकी जरूरतें बिल्कुल अलग हैं। यानी, योजनाओं को स्थानीय जरूरतों के हिसाब से बनाना होगा।
3. ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल को सक्रिय करना
गिरिजा शंकर कहते हैं कि ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल (आदिवासी सलाहकार परिषद) को सक्रिय करना चाहिए। यह एक संवैधानिक संस्था है और आदिवासियों से जुड़े सभी बड़े फैसले यहीं लिए जाने चाहिए।

4. आदिवासी विधि निगमों को पावरफुल बनाना
वह आदिवासी विधि निगमों को भी सक्रिय करने की आवश्यकता पर बल देते हैं। उनका कहना है कि जब तक आदिवासियों के हितों की रक्षा करने वाली ये संस्थाएं ठीक से काम नहीं करेंगी, तब तक केवल राज्य बनाने से कोई फायदा नहीं होगा। इन निगमों को ज्यादा पावरफुल बनाने की जरूरत है।
राजस्थान में तेज, लेकिन मध्यप्रदेश में आंदोलन धीमा
राजस्थान से निकली भील प्रदेश की यह चिंगारी मध्यप्रदेश में अभी तक एक बड़े आंदोलन का रूप नहीं ले पाई है। यह स्थिति तब है जब मध्यप्रदेश आदिवासी जनसंख्या के मामले में राजस्थान से काफी आगे है। इसके कई कारण हैं।
इस आंदोलन का मुख्य नेतृत्व और राजनीतिक लाभ स्पष्ट रूप से राजस्थान के आदिवासी नेताओं को मिला है। राजस्थान में BTP के 3 से अधिक विधायक हैं और एक सांसद भी आदिवासी पार्टी से है। वहीं, मध्यप्रदेश में आदिवासी पार्टी से केवल एक विधायक ही चुनाव जीत पाया है।
कांग्रेस या भाजपा के किसी भी बड़े आदिवासी नेता ने खुलकर भील प्रदेश की मांग का समर्थन नहीं किया है।