मां की किडनी से बेटे को मिला नया जीवन: डिस्चार्ज पर आंखें हुईं नम, डॉक्टरों के पैर छुए;प्राइवेट अस्पतालों में 10 लाख खर्च कर चुका था परिवार – Indore News

मां की किडनी से बेटे को मिला नया जीवन:  डिस्चार्ज पर आंखें हुईं नम, डॉक्टरों के पैर छुए;प्राइवेट अस्पतालों में 10 लाख खर्च कर चुका था परिवार – Indore News


देवास के 25 वर्षीय सिविल इंजीनियर सचिन वैष्णव को तीन साल से किडनी की गंभीर बीमारी थी। देवास, इंदौर, अहमदाबाद, दिल्ली के कई प्राइवेट अस्पतालों के इलाज और 10 लाख रुपए से ज्यादा खर्च के बावजूद हालात बिगड़ते गए। बीते दो साल से डायलिसिस पर निर्भर सचिन को

.

एक जुलाई को हुई यह जटिल सर्जरी तीन घंटे चली, जिसमें लेप्रोस्कोपिक प्रक्रिया के जरिए मां की किडनी निकालकर बेटे को ट्रांसप्लांट की गई। सर्जरी के बाद दोनों को आईसीयू में रखा गया। मां को एक सप्ताह बाद और सचिन को 22 जुलाई को अस्पताल से छुट्टी मिली। डिस्चार्ज के समय परिवार की आंखें नम थीं और सचिन ने डॉक्टर्स के पैर छूकर आभार जताया। उसने कहा ‘सरकारी अस्पताल मेरे लिए वरदान साबित हुआ है।’ सरकारी सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल में यह दूसरा सफल किडनी ट्रांसप्लांट था।

सरकारी हॉस्पिटल में एडमिट होने के पहले मां ललिता ने दिया था बेटे सचिन को आशीर्वाद।

सचिन ने बताया कि पिता का प्राइवेट जॉब है जबकि मां गृहिणी है। परिवार में बड़ा भाई आईटी सेक्टर में है। उसने सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की है, लेकिन उसी दौरान तीन साल पहले किडनी की तकलीफ शुरू हो गई। पहले देवास के अस्पतालों में दिखाया तो फर्क नहीं पड़ा। इसके बाद इंदौर में चार प्राइवेट अस्पतालों में दिखाया। इस दौरान दवाइयां चलती रहीं, लेकिन तकलीफ कम नहीं हुई।

फिर अहमदाबाद और दिल्ली के अस्पतालों में दिखाया पर तकलीफ और बढ़ती गई। होम्योपैथिक डॉक्टरों का भी इलाज कराया। इस दौरान 10 लाख रुपए से ज्यादा खर्च हो गए। फिर इंदौर दो साल पहले इंदौर आकर सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल में दिखाया। यहां भी करीब दो साल तक डायलिसिस चलता रहा। मां की किडनी मैच होते ही लीगल प्रोसेस कराई डॉ. रितेश कुमार बनोडे (नेफ्रोलॉजिस्ट) ने बताया कि सचिन को तीन साल से किडनी की तकलीफ थी। उसकी बायोप्सी में IgA Nephropathy बीमारी का पता चला। यह बीमारी धीरे-धीरे बढ़ती गई। दो साल से स्पेशिएलिटी में डायलिसिस शुरू हुआ, लेकिन उसमें भी समस्या काफी आने लगी। मरीज को बार-बार एडमिट होना पड़ता था। परिवार का कहना था कि हम ट्रांसप्लांट चाहते हैं। हमारा भी मानना यही था कि डायलिसिस से बेहतर ट्रांसप्लांट ही होता है। इसमें मरीज पहले की तरह नॉर्मल हो जाता है। घर वालों की काउंसिलिंग की। मां की किडनी मैच हुई और सहमति के बाद संबंधित कई जांचें कराईं। इसके साथ ही SOTO (स्टेट ऑर्गन्स ट्रांसप्लांट आर्गेनाइजेशन) से लीगल कानूनी प्रक्रिया पूरी कराई। तीन बिंदुओं पर तैयार किया प्लान डॉ. विशाल कीर्ति जैन (एसोसिएटेड प्रोफेसर, यूरोलॉजी एमजीएम मेडिकल कॉलेज) ने बताया कि इस सर्जरी में तीन बिंदुओं पर बारीकी से प्लान तैयार किया गया। पहला प्री ऑपरेटिव असेसमेंट, दूसरा इंट्राऑपरेटिव मैनेजमेंट और तीसरा पोस्ट ऑपरेटिव मैनेजमेंट। इसके तहत तीनों फेस में संबंधित सारी जांचें कराई गईं कि किसी तरह की समस्या तो नहीं है। फिर किडनी मैच और लीगल प्रोसेस के बाद प्लान तैयार किया गया। चूंकि दोनों ऑपरेशन साथ में होने थे इसलिए ऐसे केसों चुनौतियां बढ़ जाती हैं। सर्जरी के बाद आईसीयू में सबसे बड़ी समस्या रिजेक्शन की रहती है। इसके साथ ही यूरिन ऑउटपुट पर नजर, किडनी फंक्शन, क्रिएटिन का खास ध्यान रखना पड़ता है। इस केस में ये सभी बेहतर रहे। अब आगे फॉलोअप में ये सब रखना होगा ध्यान

  • डॉक्टरों ने बताया कि मरीज को अब जिंदगीभर दवाइयां नियमित लेनी होंगी।
  • इसके साथ ही नियमित फॉलोअप में रहना होगा।
  • मरीज को इन्फेक्शन से बचने ज्यादा ध्यान रखना होगा।
  • ऐसा वातावरण जहां इन्फेक्शन का खतरा है, वहां से दूर रहना होगा।
  • भीड़भाड़ वाली जगह, धूल-मिट्टी आदि के दौरान मास्क का उपयोग करना होगा।

पूरी टीम का रहा योगदान

ट्रांसप्लांट करने वाली टीम।

ट्रांसप्लांट करने वाली टीम।

खास बात यह कि अभी तक ट्रांसप्लांट प्राइवेट अस्पतालों में ही होते रहे हैं। डीन डॉ. अरविंद घनघोरिया ने बताया कि इंदौर में सरकारी अस्पताल में यह दूसरा सफल ट्रांसप्लांट रहा है। इसके लिए यहां ट्रांसप्लांट संबंधी अत्याधुनिक यूनिट और पर्याप्त स्टाफ नियुक्त हैं। अभी वेटिंग में चार किडनी ट्रांसप्लांट होना है। सोटो के माध्यम से जल्द ही ये यहां किए जाएंगे। इस ट्रांसप्लांट टीम में डॉ. पद्ममिनी सरकानूनगो (यूरोलॉजिस्ट) डॉ. अर्पण चौधरी, डॉ. मानस और डॉ. दीप जैन (एनेस्थेटिस्ट), डॉ. दीप्ति सक्सेना (ट्रांसप्लांट इंचार्ज), ऐश्वर्या गोयल (ट्रांसप्लांट कोऑर्डनेटर), डॉ. एकता चौरसिया, डॉ. प्रदीप सालगिया और डॉ. सुशील भाटिया शामिल थे। सुपरिटेंडेंट डॉ. सुमित शुक्ला ने ट्रांसप्लांट को सुविधाजनक बनाने में अहम भूमिका निभाई। मां बोली-बेटे को वाकई सरकारी अस्पताल में ही नया जीवन मिला

किडनी ट्रांसप्लांट के एक दिन पहले (30 जून) डॉक्टरों के विश्वास पर निश्चिंत थे मां-बेटे।

किडनी ट्रांसप्लांट के एक दिन पहले (30 जून) डॉक्टरों के विश्वास पर निश्चिंत थे मां-बेटे।

सचिन का यह किडनी ट्रांसप्लांट आयुष्मान योजना में पूरी तरह फ्री में हुआ है, जबकि प्राइवेट अस्पतालों में ट्रांसप्लांट 5 से 8 लाख रुपए में होता। सचिन और उसके परिवार सरकारी अस्पताल में इलाज करवाने के पहले 10 लाख रुपए खर्च कर चुके थे। अब सरकारी सिस्टम और डॉक्टरों के प्रति वे कृतज्ञ हैं। मां ललिता का भी कहना है कि उनके बेटे को वाकई सरकारी अस्पताल में ही नया जीवन मिला है अन्यथा हम तो टूट चुके थे।



Source link