जिस कंघी से राजा-महाराजा संवारते थे बाल, आज भी उसी कला को जिंदा रखे हैं छगनलाल, अंग्रेजों भी थे दीवाने

जिस कंघी से राजा-महाराजा संवारते थे बाल, आज भी उसी कला को जिंदा रखे हैं छगनलाल, अंग्रेजों भी थे दीवाने


उज्जैन. आज के समय में हर किसी के मन में ख्याल आता है कि आज तो कई इलेक्ट्रिकल उपकरण और आधुनिक चीजों के बीच हम घिरे हुए हैं, लेकिन राजा महाराजा के समय उनका जीवन कैसे चलता था. क्या खाते थे, कैसे अपना रूपये निखारने के लिए क्या करते थे. आज भी मध्यप्रदेश के उज्जैन मे कांगी मोहल्ला है, जहां राजा-महाराजा व उनके सेवक खरीदारी करने आते थे. पुराने शहर मे दूध तलाई के पास बंजारा समाज के 20 परिवारों में से अब एक मात्र एक शख्स छगनलाल बंजारा ही बचे हैं, जो कि 88 वर्ष की उम्र में भी कांपते हाथ, धुंधलाती आखों से प्राचीन हथकरधा परंपरा को संजोय रखे हैं.

दरअसल देखा जाता है कि वक़्त बदला और आर्टिफिशयल सस्ते सामानों ने बंजारा समुदाय के मार्केट को मानों पीछे छोड़ दिया. परिवारों ने आजिविका के लिए दूसरे साधन तलाशने शुरू कर दिए और अब हालात ये है कि 20 परिवारों में एक मात्र शख्श छगनलाल बचे हैं, जो 88 वर्ष की उम्र में भी कांपते हाथ, धुंधलाती आखों से प्राचीन हथकरधा परंपरा को संजोय रखे है.उन्होंने बताया कि 10 वर्ष की उम्र से कंघी की अलग-अलग वेरायटी बनाते आ रहे हैं. शादी के बाद पत्नी दुर्गाबाई ने भी उनका साथ निभाया. दोनों पति-पत्नी दिल्ली, मुम्बई, छत्तीसगढ़, राजस्थान व अन्य राज्यो में कला को प्रदर्शित करने गए. राज्यपाल पुरुस्कार पाए.

कला को निखारने में लगता था इतना समय
अक्सर खूबसूरत चिज को बनाने में बारीकी और कला के साथ समय भी लगता है. छगनलाल बताते है कि सामान्य कंघी बनाने में 3 घण्टे का समय लगता है, लेकिन कलात्मत जिसके ऊपर कोई आकृति बनानी हो, उसमें दिन भर लग जाता है. साथ ही जिन औजार से ये कंघिया बनाते है वो भी छगनलाल द्वारा तैयार किये गए औजार है. मार्केट में ये आम तौर पर नहीं मिलते. ये कला छगनलाल ने उनके पिता और दादाजी से सीखी उसे आगे बढ़ाया और आज भी कर रहे है.

07 अगस्त बंजारा समुदाय के लिए खास 
बंजारा समुदाय के 88 वर्ष के छगनलाल की ये कहानी, जो आपको 7 अगस्त 1905 का वो दिन भी याद दिलाएगी जब स्वदेशी आंदोलन का आगाज हुआ. बदलते वक़्त के साथ वर्ष 2015 मे आई नरेंद्र मोदी सरकार ने इस दिन को हथकरधा दिवस के रूप में घोषित किया. मध्यप्रदेश सरकार का संस्कृति विभाग हर महीने कला के सम्मान और आजीविका के लिए 5000रु छगनलाल को देती है.

अलग-अलग वेरायती की सैकड़ो कंघियों 
छगनलाल ने बताया यह कोई सारे सामान मे स्पेशल शीशम की लकड़ी से बनता है. हमारे पास कई वेरायटी भी उपलब्ध है. जिसमे तैल वाली कंघी, नारियल से बने बक्कल, जुड़ा पिन, माँजनी कंघी, दांति कंघी, कलात्मक कंघिया व अन्य शमील है. लकड़ी का बक्कल 40रु, नारियल बक्कल 60रु, कंघी की अलग अलग वेरायटी आज की तारीख में 200रु से लेकर 500रु तक है. आजाद भारत के पहले ये कीमत 80 से 100 रु हुआ करती थी. आज भी ये कंघिया छगनलाल बेचते है जो छगनलाल को उनकी कला को जानते है वो छगनलाल के फिक्स ग्राहक है साथ ही छगनलाल के बच्चो ने इसे ऑनलाइन भी बेचा है.

रूपये के बदले ख़ुश होके राजा महाराजा देते यह खास चीज 
छगनलाल बताते है कभी कभी हालात उधार लेकर काम करने के बन जाया करते थे. लकड़ियां खरीदने के लिए उधार लिया. कला को जिंन्दा रखने का जुनून परिवार की दाल रोटी चलाने के लिए सब कुछ किया. हमारी कंघियों को यूं तो राजा महाराजा खास तौर पर ले जाते, उनकी डिमांड पर हम तैयार भी करते उसके बदले जमीन दिया करते थे लेकिन कभी हमने जमीन लेना स्वीकार नहीं क़िया हमेशा मेहनत जितना पाया उसी से बच्चो को पढ़ाया लिखाया.



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