National Handloom Day: अहिल्या की विरासत, महिलाओं का स्वाभिमान और भारत की शान हैं महेश्वरी साड़ियां

National Handloom Day: अहिल्या की विरासत, महिलाओं का स्वाभिमान और भारत की शान हैं महेश्वरी साड़ियां


दीपक पांडेय/खरगोन. हर साल 7 अगस्त को पूरे देश में ‘राष्ट्रीय हथकरघा दिवस’ मनाया जाता है. इस मौके पर अगर मध्यप्रदेश के खरगोन जिले की पर्यटन नगरी महेश्वर और यहां की प्रसिद्ध माहेश्वरी साड़ियों की बात न की जाए, तो यह उत्सव अधूरा सा लगेगा. क्योंकि आज महेश्वरी साड़ियां न केवल भारत में बल्कि विश्वभर में अपनी खास बनावट, डिजाइन और गुणवत्ता के कारण प्रसिद्धि हासिल कर रही हैं.

आज के दौर में यह हैंडलूम पर बनने वाली माहेश्वरी साड़ियां चंदेरी और बनारसी साड़ियों को भी पीछे छोड़ते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजारों में अपनी मजबूत पहचान बना रही हैं. खास बात यह है कि महेश्वर के करीब 6000 परिवारों के लिए यह उद्योग आमदनी का मुख्य जरिया बन चुका है, जिसमें महिलाओं की भागीदारी सबसे अधिक है. घर-घर में हैंडलूम लगे हैं और महिलाएं घरेलू कार्यों के साथ-साथ साड़ियों की बुनाई करके स्वावलंबन की मिसाल पेश कर रही हैं.

258 साल पुराना इतिहास
महेश्वरी साड़ियों का इतिहास करीब 258 साल पुराना है. इसकी शुरुआत 1767 में मालवा की प्रसिद्ध शासिका देवी अहिल्याबाई होलकर ने की थी. उन्होंने हैदराबाद, गुजरात आदि शहरों से कुशल कारीगरों को महेश्वर बुलाकर स्थानीय लोगों को बुनाई का प्रशिक्षण दिलवाया. प्रारंभ में सूती साड़ियां, पगड़ी, साफा और अन्य वस्त्र तैयार किए जाते थे. इनमें साड़ियां राजघराने की महिलाओं और अतिथियों को उपहार स्वरूप भेंट की जाती थीं.

होलकर राज्य की फैक्ट्री बनी बुनियाद
साल 1921 में होलकर स्टेट के तत्कालीन महाराज तुकोजीराव होलकर ने महेश्वर में ‘वीविंग एंड डाइंग डिमॉन्स्ट्रेशन फैक्ट्री’ की स्थापना की. यहां पर बुनकरों को हथकरघा से जुड़ी तकनीकी जानकारी दी जाती थी. यही फैक्ट्री आगे चलकर ‘शासकीय हथकरघा महेश्वर’ के नाम से जानी गई. इसी प्रयास से माहेश्वरी साड़ियां आम लोगों तक भी पहुंचने लगीं.

रेवा सोसाइटी से मिली नई पहचान

करीब 57 साल बाद, 1978 में देवी अहिल्याबाई के वंशज शिवाजीराव होलकर और उनकी पत्नी शैली होलकर ने ‘रेवा सोसाइटी’ की स्थापना की. इस सोसाइटी में सैकड़ों महिला और पुरुष बुनकरों को निःशुल्क प्रशिक्षण देकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया गया. इसी प्रयास के लिए भारत सरकार ने इसी वर्ष 2025 में शैली होलकर को पद्मश्री सम्मान से नवाजा है. उनके इस प्रयास ने महेश्वरी साड़ियों को वैश्विक मंच पर पहुंचाया.

महेश्वरी साड़ी की खासियत
महेश्वरी साड़ियों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये पूरी तरह हाथों से हथकरघा पर बुनी जाती हैं. इसके पल्लू और बॉर्डर पर ऐतिहासिक महेश्वर किले की नक्काशी की झलक देखने को मिलती है. बुनकर अज़ीज़ अंसारी बताते हैं कि महेश्वर में करीब 5500 हैंडलूम संचालित हैं, जिन पर करीब 8000 बुनकर कार्यरत हैं. इनमें करीब 50% महिलाएं हैं. यहां सिल्क, कॉटन, प्योर सिल्क और टिशू समेत 60 से अधिक वैरायटी की साड़ियां और दुपट्टे बनाए जाते हैं.

देश के कोने-कोने से आता है मटेरियल
इन साड़ियों की कीमत 2000 रुपए से शुरू होकर लाखों तक जाती है. महेश्वरी साड़ियों के लिए रॉ मटेरियल देश के विभिन्न हिस्सों से आता है. कॉटन कोयंबटूर से, सिल्क बेंगलुरु से और जरी सूरत से मंगाई जाती है. यहां इस्तेमाल होने वाला सिल्क सोने-चांदी के मिश्रण से बना होता है. यह पूरी तरह हैंडमेड साड़ियां हैं, जिनमें किसी भी तरह की इलेक्ट्रिक मशीन का उपयोग नहीं होता. यही वजह है कि भारत के साथ-साथ मलेशिया, श्रीलंका, नेपाल, कुवैत, सऊदी अरब जैसे देशों में भी इनकी भारी मांग है.



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