रक्षाबंधन के एक दिन बाद रविवार की शाम प्राचीन परंपरा का पालन करते हुए रीवा की महिलाएं समूह में एकत्र होकर बाबा घाट पहुंची। जहां उन्होंने नदी के प्रवाह में कजलियां विसर्जित करते हुए एक दूसरे को कजलियां भेंट की और कजली गाई।
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इस आयोजन के दौरान महिलाओं के समूह में कपड़े के बने हुए गुड्डे-गुड़ियों का विवाह भी संपन्न कराया।
पारंपरिक मान्यताओं के मुताबिक कजली का पर्व, जिसे भुजरिया भी कहा जाता है, बुंदेलखंड और बघेलखंड क्षेत्र में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्योहार है। यह मुख्य रूप से रक्षाबंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है। यह पर्व आल्हा-ऊदल जैसे वीरों की वीरता और विजय का प्रतीक है, और इसे विजयोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है।
वहीं कुछ मान्यताओं के मुताबिक कजलियां पर्व प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा है। इस पर्व का प्रचलन महान राजा आल्हा ऊदल के समय से है। आल्हा की बहन चंदा श्रावण माह से ससुराल से अपने मायके आई तो सारे नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया था।
कविता पांडे और प्राची मिश्रा ने बताया कि बाबा घाट में हम वर्षों से इस परम्परा का निर्वहन करते चले आ रहे हैं। यह त्योहार आपसी सद्भाव और भाईचारे को बढ़ावा देता है।