भोपाल। इंदौर सेंट्रल जेल, 4 अगस्त 1996 की रात। रात की स्याही गहरी होती जा रही थी। सावन की बारिश लगातार गिर रही है। इंदौर सेंट्रल जेल की दीवारें इस रात किसी और ही डरावने सच की गवाही देने को तैयार हैं।
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जेल के एक कोने में बनी वह काल कोठरी, जो कई महीनों से वीरान थी, अब एक बार फिर किसी को मौत की आहट सुनाने जा रही है। उमाशंकर पांडे, उम्र 42 वर्ष। मौत से पहले जिंदगी की आखिरी रात इसी काल कोठरी में बिता रहा है। सब कुछ शांत है, लेकिन कोठरी के बाहर हलचल तेज है।
इसी जेल में 29 साल पहले बंद था उमाशंकर पांडे।
मध्यप्रदेश क्राइम फाइल्स में इस बार बात 29 साल पहले दी गई फांसी की। अगस्त महीने में फांसी दी गई थी। उस रात क्या-क्या हुआ था…
पढ़िए सिलसिलेवार कहानी-
4 अगस्त की देर रात से ही जेल अधीक्षक राजाराम खन्ना, जेलर एसपी जैन, एसडीएम पीसी राठी, सीएसपी राजेश हिंगणकर, जल्लाद बालकृष्ण राव और अन्य अफसरों की आवाजाही बढ़ गई थी। कोई कागज देख रहा था, कोई घड़ी मिलाकर समय का सही तालमेल साध रहा था। सब कुछ तय समय पर हो यही सबसे बड़ा मकसद था।
जेल की नियमावली के अनुसार फांसी का समय तय था- 5 अगस्त, सुबह 5 बजे। उसके पहले जेल कायदे की एक-एक प्रक्रिया को सावधानी से पूरा करना था।
जेलर जैन और अन्य अधिकारियों ने सबसे पहले काल कोठरी की ओर रुख किया। लाठी टेकते वृद्ध पुलिसकर्मी खान ने अपने अनुभव के मुताबिक सावधानी से दरवाजा खोला।

“बाहर आओ पांडे जी, समय आ गया है”
जवानों ने धीरे से कहा – “देखो, साहब मिलने आए हैं, पांडे जी, बाहर आ जाओ।”
कोठरी से बाहर निकला उमाशंकर अब तक समझ चुका था कि यह रात उसकी आखिरी रात है। वह बाहर आया। मैला कुचैला लठ्ठे का कुर्ता-पायजामा, हड्डियों पर चढ़ा बस एक ढांचा, आंखों में गहराता खालीपन।
एसडीएम पीसी राठी ने औपचारिक पूछताछ शुरू की…
“क्या नाम है?”
“उमाशंकर पांडे।”
“बाप का नाम?”
“दीनदयाल पांडे।”
“गांव?”
“लक्ष्मीपुरा, उज्जैन।”
सभी उत्तर रूखे, लेकिन साफ थे। उमाशंकर शायद अब हर जवाब से खुद को मृत्यु के और करीब महसूस कर रहा था।
वजन लेने वाले डॉक्टर को हुई हैरानी
डॉ. बीएल निधान और डॉ. शरद जैन ने उसका अंतिम स्वास्थ्य परीक्षण किया।

जेलर जैन ने चौंकते हुए एसडीएम राठी से कहा – “पहले 46 किलो था। मौत के इंतजार में चार किलो बढ़ गया?”
जेल अफसरों ने भी यही अनुमान लगाया। शायद मानसिक तनाव शरीर से भी टकरा रहा था।
नहाया नहीं, बारिश में भीग गया था उसे ही नहाना माना
जेल कर्मचारी बोले- “चलो पांडे जी, स्नान कर लो, आज महाकाल का दिन है, सावन का सोमवार है।”
गर्म पानी, साबुन, तौलिया सब लाकर रख दिया गया।
लेकिन उमाशंकर निर्विकार भाव से खड़ा रहा।
जब पूछा गया—”नहाने की इच्छा नहीं है क्या?”
धीरे से जवाब आया—”पोटी जाना है।”

उसके बाद एक जवान लाया। नई लठ्ठे की कमीज और पायजामा। चादर की आड़ में वह नए कपड़े पहनता है।
अब वह मरने के लिए तैयार है।
सुबह के 4 बजकर 25 मिनट हो चुके हैं। जेलर जैन अधिकारियों से अनुरोध करते हैं कि सब अपनी घड़ियां मिला लें। जल्लाद बालकृष्ण राव, जेल अधीक्षक राजाराम खन्ना, एसडीएम पीसी राठी, सीएसपी राजेश हिंगणकर अपनी-अपनी घड़ी के कांटे 4.25 पर कर लेते हैं। यह व्यवस्था इसलिए की जाती है ताकि सुबह ठीक 5 बजे फांसी देने के आदेश के पालन में समय का हेरफेर न हो पाए।

ब्लैक वारंट और अंतिम पूछताछ
जेल अधीक्षक खन्ना ने ब्लैक वॉरंट मंगवाया।
जेलर जैन ने उसमें दर्ज बातें पढ़ीं –

आपको सत्र न्यायाधीश एससी व्यास की अदालत ने धारा 302, 307 के तहत मृत्युदंड और आजीवन कारावास की सजा दी थी। आपकी अपील उच्च न्यायालय और फिर उच्चतम न्यायालय ने खारिज की। दया याचिका राज्यपाल और राष्ट्रपति ने अस्वीकार की। अब आपको 5 अगस्त 1996 की सुबह 5 बजे फांसी दी जाएगी।
फिर पूछा गया – “कोई अंतिम इच्छा है?”
कोई जवाब नहीं आया।
एसडीएम राठी ने कोमल स्वर में पूछा –
“कुछ खाना चाहते हो? किसी से मिलना हो या कोई संदेश देना हो…?”
उमाशंकर की चुप्पी वैसी ही रही, जैसे मौत से दोस्ती कर ली हो।
अब बस 50 कदम… काल कोठरी से फांसी घर तक

फांसी का चबूतरा, जहां जीवन रुक जाता है
चबूतरे पर दो कैदियों को एक साथ फांसी देने की व्यवस्था थी, लेकिन आज सिर्फ उमाशंकर के लिए यह मंच तैयार था।
जल्लाद बालकृष्ण राव तैयार था। थुलथुल शरीर, सफेद बड़ी मूंछें, हाथ में रूमाल। रस्सी को जांचता, लीवर की सफाई करता और तीन बार प्रणाम करता। मानो कोई पूजा वैदिक रीति से संपन्न कर रहा हो। उधर, उमाशंकर के पैरों में 25 किलो बालू की पोटली बांधी जा चुकी थी, क्योंकि फांसी में वजन का संतुलन जरूरी होता है। उसके चेहरे पर गहरा नीला नकाब बांधा जा चुका था। सब कुछ तैयार था।
एक जल्लाद की चुप्पी– जो हर फांसी के बाद और भारी हो जाती
वो सिर्फ एक आदमी था- सरकारी वेतनभोगी, लेकिन जब उसे 4 अगस्त की रात बुलावा आया कि “कल सुबह 5 बजे उमाशंकर को फांसी देनी है’ तो उसके अंदर फिर वही पुराना बोझ सिर उठाने लगा।
जल्लादों को कोई ट्रेनिंग नहीं दी जाती, न मनोवैज्ञानिक तैयारी, न संवेदनशीलता की काउंसलिंग। लेकिन हर फांसी उनके अंदर एक दाग छोड़ जाती है।
“हम किसी को मारते नहीं… हम कानून के हाथ हैं’, वो अक्सर कहता था, लेकिन क्या वो हाथ रात को चैन से सो पाते हैं?

भारत में फांसी: कानून, प्रक्रिया और उस सुबह की सटीकता
भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (अब 103) के तहत मौत की सजा ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ मामलों में दी जाती है और जब अदालत का अंतिम निर्णय आता है, तो मौत महज एक तारीख बन जाती है।
उमाशंकर पांडे की फांसी भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा थी –
1 – मौत की तिथि तय हुई : 5 अगस्त 1996
2 – 24 घंटे पहले से निगरानी : विशेष वार्ड में बंदी को अलग रखा गया
3 – जेलर, जल्लाद और मजिस्ट्रेट तैनात : सारी प्रक्रिया सरकार द्वारा तय प्रोटोकॉल के तहत
4 – फांसी से पहले डॉक्टर की रिपोर्ट : मानसिक स्थिति सामान्य होनी चाहिए
5 – सुबह 5 बजे का समय : जेल नियमावली के अनुसार, यह तय समय है
इन सवालों के जवाब जानिए पार्ट 2 में-
– उमाशंकर को फांसी क्यों दी गई, उसने क्या अपराध किया था?
– क्या उमाशंकर पांडे के चेहरे पर आखिर तक कोई पछतावा दिखा?
– आखिरी क्षणों में क्या उमाशंकर ने बचने की कोशिश की?
– फांसी और कपड़ों की परंपरा क्या थी?
– फांसी का आंखों देखा हाल किसने बताया?