अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा ये रंगरेज का जादू, आज भी 50 रुपये में कर देगा कपड़े फ्रेश

अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा ये रंगरेज का जादू, आज भी 50 रुपये में कर देगा कपड़े फ्रेश


खंडवा जिले की पुरानी गलियों में स्थित केवलाराम चौहराया एक ऐसा स्थान है, जहां आज भी पुराने ज़माने की खुशबू महसूस होती है. सड़क किनारे बैठे एक शख्स, रंगों से सजी बाल्टियों, उबलते पानी और कपड़ों के ढेर के बीच अपनी कारीगरी में डूबे हुए दिखाई देते हैं. ये हैं मोहम्मद नासिर रंगरेज, जो मात्र 50 रुपए में आपके पुराने, फीके और बेजान कपड़ों को फिर से नया बना देते हैं. यह कहानी सिर्फ मोहम्मद नासिर की नहीं, बल्कि उनके खानदान की भी है. यह काम उनके परिवार में पिछले 76 सालों से चला आ रहा है. अंग्रेजों के जमाने में, उनके दादा “बाबू रंगरेज” इस काम के लिए मशहूर थे. उस दौर में भी लोग दूर-दूर से अपने कपड़े रंगवाने उनके पास आते थे. काला हो, पीला हो, नीला हो या कोई भी रंग बाबू रंगरेज के पास हर रंग का जादू मौजूद था.

दूसरी पीढ़ी का हुनर, तीसरी पीढ़ी का सपना
नासिर बताते हैं कि यह कला उन्होंने अपने पिता मोहम्मद रशीद रंगरेज से सीखी. रशीद साहब भी सड़क किनारे दुकान लगाते थे और बड़े शहरों के ग्राहक भी उन्हीं पर भरोसा करते थे. भोपाल, इंदौर, हरदा जैसे शहरों से लोग अपने कपड़े रंगवाने खंडवा आते थे. यह भरोसा सिर्फ कम दाम की वजह से नहीं, बल्कि उस गारंटी की वजह से था, जो रंगरेज परिवार देता था “एक बार रंग देंगे, तो कपड़े लंबे समय तक चमकते रहेंगे.” आज नासिर उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं. हालांकि जमाना बदल गया है, मशीनें आ गई हैं, फैक्ट्री में तैयार कपड़े बाजार में बिक रहे हैं, लेकिन नासिर का कहना है “मशीन चाहे कितनी भी तेज हो, हाथ के रंग की गहराई और टिकाऊपन कोई मशीन नहीं दे सकती.”

काम करने का तरीका
नासिर की दुकान पर सबसे पहले कपड़ों को अच्छी तरह धोकर उनकी धूल और मैल हटाई जाती है. फिर बड़े कड़ाह में पानी उबालकर उसमें रंग और जरूरी रसायन मिलाए जाते हैं. कपड़ों को सावधानी से उस घोल में डाला जाता है और लगातार चलाया जाता है, ताकि हर धागे में रंग समान रूप से समा जाए. यह काम आसान नहीं है तापमान, रंग की मात्रा और समय का सही अंदाज़ होना जरूरी है, वरना कपड़े का रंग बिगड़ सकता है.

50 रुपए में नया जैसा कपड़ा
आज के समय में जहां एक नया कुर्ता या साड़ी खरीदने में सैकड़ों से हजारों रुपए लग जाते हैं, वहीं नासिर मात्र 50 रुपए में उसी कपड़े को नया जैसी चमक दे देते हैं. यही वजह है कि आज भी उनके पास ग्राहकों की कमी नहीं है. गांव-गांव और शहर-शहर से लोग उनके पास आते हैं. कई लोग तो साल में दो-तीन बार अपने कपड़े रंगवाने का नियम बना चुके हैं.

रंगों के पीछे की भावनाएं
नासिर कहते हैं कि “हमारे लिए यह सिर्फ रोज़ी-रोटी का साधन नहीं, बल्कि एक विरासत है. मेरे दादा और पिता ने जो नाम कमाया, मैं उसे बनाए रखना चाहता हूं.” उनका मानना है कि रंग सिर्फ कपड़े को नया नहीं बनाते, बल्कि पहनने वाले के मन को भी खुश कर देते हैं.

चुनौतियां भी कम नहीं
बदलते फैशन और मशीनों की वजह से हाथ की रंगाई का काम धीरे-धीरे कम होता जा रहा है. कई युवा इस काम में अपना भविष्य नहीं देखते, क्योंकि इसमें मेहनत ज्यादा और कमाई सीमित है. लेकिन नासिर का मानना है कि जब तक पुराने कपड़े रहेंगे, रंगरेज का काम कभी खत्म नहीं होगा.

एक विरासत जो अब भी जिंदा है
आज खंडवा में मोहम्मद नासिर रंगरेज की दुकान सिर्फ एक रंगाई की जगह नहीं, बल्कि इतिहास का जीवंत हिस्सा है. यहां आने वाला हर ग्राहक सिर्फ अपना कपड़ा नया कराने नहीं आता, बल्कि एक पुरानी परंपरा और कारीगरी का सम्मान भी करता है. अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही यह कला, आज भी उसी मेहनत, लगन और जुनून के साथ जिंदा है और शायद आने वाली पीढ़ियों में भी जिंदा रहेगी.



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