1857 का वह स्वर्णिम काल, जब भारत की आजादी की चिंगारी हर कोने में धधक रही थी। मध्य भारत के एक छोटे से गांव ने भी इस महान स्वतंत्रता संग्राम में अपना अमिट योगदान दिया – वह था सतना जिले का पिंडरा गांव। पयस्वनी नदी के तट पर बसा यह गांव क्रांतिकारियों का
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पिंडरा में 109 शहीदों की याद में स्तंभ बनाया गया है। इसमें सभी के नाम लिखे गए हैं।
पिंडरा के क्रांतिकारियों का लहू खोल उठा था
ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 के विद्रोह से सतना जिले का छोटा सा गांव पिंडरा भी अछूता नहीं था। ब्रिटिश साम्राज्य को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए क्रांतिकारियों का लहू यहां भी खौलने लगा था। सतना से 50 किलोमीटर दूर चित्रकूट रोड पर स्थित पिंडरा उन दिनों क्रांतिकारियों की सक्रिय गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। बरौंधा स्टेट के पिंडरा जागीर की आबादी 4 हजार के करीब थी।
जागीरदार रघुवंश प्रताप सिंह की नौंवी पीढ़ी के वंशज 73 वर्षीय सेवानिवृत्त शिक्षक देवेंद्र सिंह रघुवंशी बताते हैं कि गांव के जिस टिकुरा में आज प्राचीन शिवालय स्थित है, बाजार टोला की इसी वीरानी में अब से 168 वर्ष पहले गर्मदल के स्वदेश प्रेमियों का जमघट लगा करता था। यहीं क्रांतिकारी ठा.रणमत सिंह, अमर बहादुर सिंह एवं दलगंजन सिंह के नेतृत्व में ब्रिटिश हुकूमत को बेदखल करने की रणनीतियां बना करती थीं।
पयस्वनी नदी के जंगल में था गुरुकुल
पिंडरा से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर, पयस्वनी नदी के पार सघन वन में एक गुरुकुल स्थापित था। यह गुरुकुल क्रांतिकारियों के लिए प्रशिक्षण केंद्र के रूप में कार्य करता था, जहां छापामार युद्ध की तकनीकें सिखाई जाती थीं और अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण भी होता था।
मनकहरी के महान क्रांतिकारी ठाकुर रणमत सिंह इस केंद्र के प्रेरणास्रोत थे। वे पिंडरा के स्वदेश प्रेमियों को न केवल आश्रय देते थे, बल्कि उनका मार्गदर्शन भी करते थे। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे से उनके निकट संबंध थे। भेलसांय के युद्ध में अंग्रेजों और ब्रिटिश समर्थक रियासतों के विरुद्ध उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। विंध्य क्षेत्र के क्रांतिकारियों को उच्च स्तरीय प्रशिक्षण देने के लिए ठाकुर रणमत सिंह ने बिहार से दो प्रसिद्ध योद्धाओं को आमंत्रित किया – कुंवर सिंह और उनके छोटे भाई अमर सिंह। ये दोनों न केवल छापामार युद्ध में माहिर थे, बल्कि शस्त्र निर्माण की कला में भी दक्ष थे। साथ ही युद्ध व्यूह रचना में भी उनकी विशेष महारत थी।

पिंडरा गांव जो आज भी स्वतंत्रता संग्राम की याद दिलाता है।
छापामार युद्ध से बौखला गए थे अंग्रेज
नौगांव छावनी पर एक साहसिक आक्रमण ने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी। क्रांतिकारी नेता रणमत सिंह, कुंवर सिंह और अमर सिंह के नेतृत्व में स्वतंत्रता सेनानियों ने पहले अजयगढ़ में अंग्रेजी सेना को परास्त किया और फिर आगे बढ़ते हुए नौगांव छावनी पर धावा बोल दिया।
जब यह खबर पिंडरा पहुंची, तो वहां के 135 रणबांकुर पयस्वनी नदी पार कर तुरंत युद्ध में कूद पड़े। छापामार युद्ध कला में माहिर इन वीरों ने अंग्रेजों को चारों ओर से घेर लिया। क्रांतिकारियों ने बारह अलग-अलग मोर्चों से युद्ध छेड़ा, जबकि रणमत सिंह की टुकड़ी रणनीतिक रूप से कोठी होते हुए रीवा की ओर बढ़ गई।
इस भीषण संग्राम में 38 क्रांतिकारी वीरगति को प्राप्त हुए, साथ ही अनेक अंग्रेज सैनिक भी मारे गए। क्रांतिकारियों ने दो अंग्रेज अफसरों को पकड़ लिया और अमिला के पेड़ पर लोहे की कीलें ठोंककर उन्हें मौत के घाट उतार दिया। छापामार युद्ध में इस अप्रत्याशित पराजय से इतना शर्मिंदा हुआ कि ब्रिटिश कमांडर लुगार्ड ने इस्तीफा देकर लंदन की राह पकड़ ली।
शिवालय पर बम दागे, लेकिन नहीं हुआ क्षतिग्रस्त पिंडरा के क्रांतिकारियों से मिली शर्मनाक हार के बाद अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर बदले की तैयारी की। इलाहाबाद (प्रयागराज), बांदा और नौगांव से विशाल सैन्य बल एकत्र किया गया। नौगांव छावनी के पोलेटिकल एजेंट मैच कुरियन के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने पिंडरा को चारों ओर से घेरने की योजना बनाई। मैच कुरियन की टुकड़ी ने पिंडरा के निकट जो पड़ाव डाला, वह स्थान आज भी ‘मिचकुरियन’ के नाम से जाना जाता है। इस सैन्य टुकड़ी के पास तोपखाना था। इटमा-डुंडैला मोड़ के सामने की पहाड़ी पर तोप तैनात की गई और क्रांतिकारियों के गढ़ के रूप में प्रसिद्ध शिवालय पर लगातार गोलाबारी की गई। आश्चर्यजनक रूप से, भीषण गोलाबारी के बावजूद मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचा। इससे क्रुद्ध होकर अंग्रेजी फौज ने पूरे गांव को घेर लिया और घरों में आग लगा दी। व्यापक लूटपाट की गई। इस बर्बर कार्रवाई में अनगिनत निर्दोष ग्रामीणों की जान चली गई। यह घटना पिंडरा के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है।

सिर्फ एक काव्य संग्रह में सिमटी वीरगाथा
पिंडरा के स्वतंत्रता संग्राम का गौरवशाली इतिहास आज उपेक्षा का शिकार है। सेवानिवृत्त शिक्षक देवेंद्र सिंह रघुवंशी और ज्ञानेंद्र सिंह इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से व्यथित हैं। उनका कहना है कि इस महान बलिदान की गाथा को संरक्षित करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ।
इस ऐतिहासिक विरासत का एकमात्र लिखित प्रमाण पिंडरा के ब्रिटिश विरोधी जागीरदार रघुवंश प्रताप सिंह के छोटे भाई स्वर्गीय दिग्विजय सिंह की कविताएं हैं। इन कविताओं को रघुवंश प्रताप सिंह के पुत्र और 73 वर्षीय सेवानिवृत्त शिक्षक देवेंद्र सिंह रघुवंशी ने ‘झांकी पिंडरा गांव’ नाम से संकलित किया है।
वर्ष 2001 में पिंडरा के चित्रकूट रोड पर बरौंधा मोड़ पर शहीद स्मृति शोध एवं विकास संस्थान द्वारा एक शहीद स्तंभ की स्थापना की गई। इस स्तंभ पर शहादत का संक्षिप्त विवरण और अमर शहीदों के नाम अंकित हैं। यह स्तंभ पिंडरा के वीर सपूतों की याद में एकमात्र स्थायी स्मारक है।

स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की याद में शहीद स्तंभ 2001 में बनाया गया था।
उपेक्षा : खोजे गए महज 109 शहीदों के नाम
पिंडरा में अंग्रेजों का नरसंहार भीषण रहा होगा, इसका अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि इसकी गूंज यूरोप तक पहुंची थी। इस पर ब्रिटिश लेखक पोर्टिक एंगिल की एक रिपोर्ट 1 अक्टूबर 1857 को न्यूयार्क टाइम्स में प्रमुखता से प्रकाशित की गई थी। छापामार युद्ध की प्रशंसा भारत में विद्रोह शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में पिंडरा के रणबांकुरों की छापामार युद्ध कला की सराहना की गई थी। मगर, दुर्भाग्य इस बात का है कि पिंडरा के क्रांतिवीरों को वह सम्मान और पहचान नहीं मिली, जिसके वो हकदार थे। अब तक इस शहादत के सिर्फ 109 नाम ही खोजे जा सके हैं। यह वीरगाथा पिंडरा तिराहे में सिर्फ एक शहीद स्तंभ पर दर्ज हो कर रह गई है।
क्षेत्र के युवा समाजसेवी एवं कांग्रेस नेता आशुतोष द्विवेदी ने पिंडरा में एक शहीद मेमोरियल पार्क बनाए जाने की मांग की है। उन्होंने कहा कि पिंडरा के जो लोग शहीद हुए है उनकी वीर गाथा का वर्णन होना ही चाहिए।