हालांकि, आधुनिकता के साथ अब यह लोक पर्व धीरे-धीरे विलुप्त होने लगा है, बावजूद कई सामाजिक संगठन एवं महिलाओं का समूह इसे बचाने का प्रयास कर रहा है. गांव-गांव जाकर बालिकाओं को संझा लोकपर्व का महत्व समझा रहे है, मांडना और गीत दिखा रहे हैं. नतीजा, फिर एक बार लोगों में संझा माता पर्व के प्रति जागरूकता बढ़ी है. ग्रामीण क्षेत्रों सहित शहरों में भी ग्रामीण क्षेत्रों सहित शहरों में भी संझा लोकपर्व के गीत सुनाई देने लगे हैं.
पंडित पंकज मेहता बताते हैं कि संझा पर्व निमाड़ की एक पुरानी लोक कला है. इस पर्व में कोई बड़ी पूजा-पाठ नहीं होती. बालिकाएं माता गौरी को अपनी सखी मानकर उनके साथ खेलती हैं. यह पर्व देवी भगवती की बाल रूप में उपासना का पर्व है, जिसमें बालिकाएं दीवारों पर सुंदर आकृतियां बनाती हैं. पहले यह परंपरा हर घर में निभाई जाती थी, लेकिन अब नई पीढ़ी इस परंपरा को भूलने लगी है.
संझा माता के प्रमुख लोकगीत
इस पर्व के दौरान यहां रोजाना शाम को सखी-सहेलियों के बालिकाएं, मुख्य रूप से संझा माता के लोकगीत जैसे- छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाय.., काजल टिकी लेओ भाई.., संजा बईन का लाड़ा जी लुगड़ो लाया जाड़ा जी…, संजा का आंगणा म मेहंदी को झाड़..” आदि सुनाई दे रहे है. गीतों के बाद एक बालिका बंद डिब्बे में प्रसाद लाती हैं, जिसे अन्य सखियों द्वारा ताड़ा जा रहा है. अमावस्या तिथि पर संजा माता का विसर्जन नर्मदा में होगा.
वहीं, निमाड़ लोक परिषद की महिला इकाई की अध्यक्ष मनीषा शास्त्री, जो निमाड़ की संस्कृति, लोक कलाओं के प्रति गांव गांव जाकर महिलाओं को जागरूक कर रही हैं. बालिकाओं को संझा लोकपर्व का महत्व समझा रही हैं. बताया, गांवों में यह परंपरा आज भी जीवित है, लेकिन वहां हिंदी में गीत गाए जा रहे हैं, जबकि, शहरों में तो विलुप्त हो रही है.
चांद, सितारे, घोड़े, ऊंट की बनाते है आकृति
अब कार्यशालाओं को जरिए महिलाओं और बालिकाओं को एकत्रित करके उन्हें निमाड़ी गीत सिखा रहे हैं. उन्होंने बताया, इस लोकपर्व के दौरान प्रति दिन अलग अलग आकृतियां बनाई जाती हैं. इनमें चांद, तारे, ऊंट, घोड़े, हाथी, के साथ भगवान गणेश सहित अन्य देवताओं के चित्र गोबर से बनाए जाते हैं. बच्चों को आकृतियां बनाना भी सिखाया जाता रहा है.