कैंसर पहाड़ी पर विराजीं सिंधिया राजघराने की कुलदेवी मांढरे वाली माता।
मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले की कैंसर पहाड़िया पर सिंधिया राजघराने की कुलदेवी मांढरे वाली माता का मंदिर स्थित है, जो 150 साल से भी पुराना है। यहां देशभर से श्रद्धालु मां के दर्शन के लिए उमड़ते हैं। मान्यता है कि सिंधिया परिवार किसी भी शुभ कार्य से पहल
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शारदीय नवरात्रि के मौके पर दैनिक भास्कर की टीम मांढरे वाली माता के मंदिर पहुंची। हम आपको बता रहे हैं, यहां के धार्मिक महत्व, इतिहास और भक्तों को मिलने वाली सुविधाओं के बारे में…
राजघराने के मुखिया लगाते हैं हाजिरी ग्वालियर शहर के बीचों-बीच स्थित पहाड़ी पर लगभग 150 साल पुराना मांढरे वाली माता का मंदिर भक्तों की आस्था का प्रमुख केंद्र है। इस मंदिर की सबसे खास बात यह है कि यहां विराजमान मांढरे वाली माता सिंधिया राजघराने की कुलदेवी हैं।
सिंधिया राजपरिवार के मुखिया चाहे कहीं भी रहें, लेकिन हर साल मां के दरबार में हाजिरी जरूर लगाते हैं। राजघराने में जब भी कोई नया शुभ कार्य आरंभ होता है, तो परिवार के सदस्य मंदिर में माथा टेकने अवश्य पहुंचते हैं।

अब जाने मंदिर की इतिहास स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, लगभग 150 वर्ष पहले महाराष्ट्र के सतारा में मांढरे वाली माता का एक मंदिर था, जिसकी पूजा आनंदराव मांढरे करते थे। उसी समय ग्वालियर के महाराज जयाजीराव सिंधिया उन्हें अपने साथ महल में लेकर आए और सेना की जिम्मेदारी सौंप दी।
कुछ समय तक आनंदराव मांढरे ग्वालियर में रहे, लेकिन बाद में माता ने उन्हें सपने में दर्शन देकर आने वाले खतरे के प्रति आगाह करना शुरू किया।

सपने में देवी का आदेश, 13 बीघा भूमि पर बना मंदिर आनंदराव को बार-बार एक ही सपना आने लगा। एक दिन माता ने उन्हें सपने में कहा- या तो तू मेरे पास आ जा, या मुझे अपने पास ले चल। इसके बाद आनंदराव ने यह बात महाराज को बताई। महाराज महाराष्ट्र से माता की प्रतिमा ग्वालियर लेकर आए और यहां स्थापित कर दी।
तभी से इस मंदिर का नाम मांढरे वाली माता मंदिर पड़ गया। मांढरे वाली माता का मंदिर 13 बीघा भूमि पर बना है और यह पूरी जमीन रियासत काल में सिंधिया राजवंश ने दान की थी।

महल की दूरबीन से माता के दर्शन इस मंदिर की स्थापत्य कला अद्वितीय है। अष्टभुजा वाली मां काली की प्रतिमा सबसे दिव्य और अद्भुत मानी जाती है। कहा जाता है कि महिषासुर मर्दिनी माता महाकाली की कृपा से ही आज तक सिंधिया राजवंश का पतन नहीं हुआ।
विजय विलास पैलेस के ठीक सामने ऊंची पहाड़ी पर यह मंदिर स्थित है। मान्यता है कि यहां से बड़ी दूरबीन के माध्यम से सिंधिया परिवार रोज माता के दर्शन करता था। कुलदेवी होने के कारण राजवंश का कोई भी शुभ कार्य माता के दर्शन किए बिना आरंभ नहीं होता।
यहां नवरात्रि के नौ दिनों में विशेष श्रृंगार किया जाता है और दशहरे के दिन सिंधिया राजपरिवार द्वारा विशेष पूजा-अर्चना होती है। उस दिन राजपरिवार के मुखिया राजकीय पोशाक में माता के दर्शन के लिए पहुंचते हैं और पूरा राजवंश एकत्रित होता है।
इस प्राचीन मंदिर को लेकर मान्यता है कि यहां सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद पूरी होती है। इसलिए बड़ी संख्या में महिला, पुरुष और बच्चे यहां दर्शन के लिए आते हैं।

दशहरे पर होता है शमी पूजन मंदिर के व्यवस्थापक मांढरे परिवार के अनुसार, इस मंदिर पर स्थित शमी वृक्ष का पूजन सिंधिया राजवंश प्राचीन काल से दशहरे के दिन करता आ रहा है। आज भी पारंपरिक परिधान धारण कर सिंधिया राजवंश के प्रतिनिधि ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने बेटे और सरदारों के साथ यहां पहुंचकर माता के दरबार में मत्था टेकते हैं और शमी का पूजन करते हैं।