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भारत में काम करने वाले लोगों में 26% महिलाएं हैं, लेकिन पिछले तीन सालों से इस आंकडे में कोई बदलाव नहीं आया है। इसी के साथ जैसे-जैसे महिलाएं सीनियर पदों की ओर बढ़ती हैं, वर्कप्लेसेज पर उनकी संख्या घटती जाती है।
ये आंकड़े ‘ग्रेट प्लेस टू वर्क’ की इंडियाज बेस्ट वर्कप्लेसेज टू वर्क एंड इन डायवर्सिटी, इक्विटी, इन्क्लूसन एंड बिलॉन्गिंग में सामने आए हैं।
रिपोर्ट में यह भी सामने आया कि भारत के वर्कप्लेस दिव्यांग और LGBTQIA+ कम्युनिटी के लोगों के लिए भी इनक्लूसिव नहीं है।

बच्चे के बाद काम छोड़ने को मजबूर महिलाएं
रिपोर्ट के अनुसार मिड-लेवल और लीडरशिप रोल्स में महिलाओं की कमी की तीन प्रमुख वजहें हैं….
- द ब्रोकन रंग- एंट्री, मिड-एंट्री और मिड लेवल पर काम करने वाली महिलाओं को वर्कप्लेस पर लिंगभेद का सामना करना पड़ता है, जिसकी वजह से पुरुष कलीग्स के मुकाबले उन्हें कम प्रमोशन और ग्रोथ के लिए लिमिटेड मौके ही मिल पाते हैं।
- कई महिलाओं का कहना है कि वर्कप्लेस किसी ‘बॉयज क्लब’ जैसा महसूस होता है जहां उन्हें फैसले लेने और लीडरशिप जैसी चीजों से दूर रखा जाता है।
- वर्क-लाइफ बैलेंस- कई महिलाओं ने कहा कि ऑफिस का सख्त शेड्यूल, संवेदना की कमी और माइक्रो-मैनेजमेंट से उनका स्ट्रेस बढ़ता है। ऑफिस में काम के लंबे घंटे, छुट्टियों की कमी और खराब हाइब्रिड मॉडल्स भी परेशानी की वजह है।
- प्रेग्नेंसी के बाद का संघर्ष- बच्चा होने के बाद काम पर लौटना महिलाओं के लिए बहुत कठिन साबित होता है। इमोशनल सपोर्ट की कमी, रिजिड वर्किंग मॉडल्स और छुट्टियों की कमी उनके सामने सबसे बड़े चैलेंजेस होते हैं।
- कई बार बच्चा होने के बाद महिलाओं पर जल्दी काम पर लौटने का दबाव भी डाला जाता है। बच्चे को लेकर भी कई वर्कप्लेसेज पर कोई सपोर्ट नहीं होता।
दिव्यांग, LGBTQIA+ को वर्कप्लेसेज पर नहीं मिलता सपोर्ट
भारत के वर्कप्लेसेज में दिव्यांग लोगों का एक बड़ा शेयर है लेकिन रिपोर्ट के अनुसार उनकी जरूरतों का ख्याल कंपनियां नहीं रखतीं। इसे लेकर जागरूकता तो बढ़ी हैं लेकिन अब भी दिव्यांग लोगों के लिए सही इंतजाम नहीं मिलते।
ग्रेट प्लेस टू वर्क की रिसर्च में पाया गया कि 2 में से केवल 1 ऑर्गेनाइजेशन में ग्लोबल स्टैंडर्ड के अनुसार दिव्यांगों के लिए टेक्नोलॉजी है।
कुछ ऐसा ही हाल LGBTQIA+ कम्युनिटी का है। इंडियन वर्कप्लेस इक्वालिटी इंडेक्ट 2024 के अनुसार, केवल 45% भारतीय कंपनियों में एंटी-डिस्क्रिमिनेटरी पॉलिसीज हैं। वहीं MNCs की बात करें तो करीब 85% में एंटी-डिस्क्रिमिनेटरी पॉलिसीज फॉलो की जाती हैं।
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