बड़वानी में अंतरराष्ट्रीय भक्तामर दिवस मनाया गया: आर्यिका मां विकुंदन माता ससंघ ने दिया मंगल सानिध्य – Barwani News

बड़वानी में अंतरराष्ट्रीय भक्तामर दिवस मनाया गया:  आर्यिका मां विकुंदन माता ससंघ ने दिया मंगल सानिध्य – Barwani News


मंच पर मौजूद आर्यिका मां विकुंदन श्री माताजी और क्षुल्लिका विश्व रत्न श्री माताजी। 

अंतरराष्ट्रीय भक्तामर दिवस पूरे विश्व में जैन और अजैन समाज की ओर से मनाया गया। इसी क्रम में बड़वानी में विराजित राष्ट्र संत गणआचार्य विराग सागर जी महा मुनिराज की शिष्या आर्यिका मां विकुंदन श्री माताजी और क्षुल्लिका विश्व रत्न श्री माताजी ससंघ के मंगल

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धर्मसभा में आर्यिका माताजी ने भक्तामर स्तोत्र की रचना और उसके महत्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि भक्तामर स्तोत्र जीवन के लिए एक औषधि है, जो भक्त को अमरता प्रदान करती है। माताजी ने समझाया कि अमर बनने के लिए पहले भक्त बनना आवश्यक है, क्योंकि प्रभु की श्रद्धा और विनयपूर्वक भक्ति से जन्म-मरण से मुक्ति मिलती है और व्यक्ति सिद्ध बन जाता है।

आर्यिका माताजी ने भक्तामर स्तोत्र की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी बताई। उन्होंने बताया कि आचार्य श्री मानतुंग ने सातवीं शताब्दी में धार नगरी में राजा भोज के शासनकाल के दौरान इस स्तोत्र की रचना की थी। राजा भोज के मंत्री आचार्य मानतुंग को लेने गए, लेकिन देर होने पर राजा क्रोधित हो गए। आचार्य मानतुंग ने मौन व्रत धारण कर रखा था, जिससे उन्होंने राजा को कोई उत्तर नहीं दिया।

प्रवचन देतीं आर्यिका मां विकुंदन श्री माताजी।

राजा भोज के अहंकार बताया

राजा भोज ने अपने अहंकार के कारण आचार्य मानतुंग को 48 बेड़ियों, 48 तालों और 48 कोठरियों में बंद करवा दिया। आचार्य श्री ने इस स्थिति को अपना कर्म बंध समझा और बारह भावना में ध्यान करते हुए भगवान आदिनाथ की स्तुति प्रारंभ की। उनकी गहन भक्ति और एकाग्रता से भक्तामर के वसंत तिलका छंद बनते गए, और जैसे ही 48 छंद पूरे हुए, सभी 48 ताले और बेड़ियां स्वतः टूट गईं। इस प्रकार भक्तामर स्तोत्र तैयार हुआ।

माताजी ने स्तोत्र की संरचना का भी उल्लेख किया। इसमें कुल 48 छंद हैं, प्रत्येक चरण में 14 पद हैं, कुल 2688 अक्षर और 4032 मात्राएं हैं। उन्होंने भक्तों को संदेश दिया कि प्रभु के समक्ष एक लघु पुजारी बनकर सच्चे मन, भाव, विनय और विशुद्धि पूर्वक भक्ति करने से निश्चित रूप से पुण्य की प्राप्ति होती है। आचार्य मानतुंग की निश्छल भक्ति ही थी, जिसके कारण उनकी सभी बेड़ियां और ताले अपने आप टूट गए।



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