Khandwa News: आज रसोई गैस के दाम आसमान छू रहे हैं. एलपीजी सिलेंडर की खपत बढ़ती जा रही है. आम लोग चिंता में हैं. इसी बीच खंडवा में अहमदपुर खेगांव के एक किसान ने ऐसा अनोखा जुगाड़ निकाला है, जिसे सुनकर हर कोई हैरान है. किसान ने न सिर्फ महंगाई से बचने का रास्ता ढूंढा, बल्कि गांव में ऊर्जा आत्मनिर्भरता की मिसाल पेश कर दी. किसान रामेश्वर पाटिल ने अपने घर में गोबर गैस प्लांट बनाया है. यह प्लांट पूरी तरह देसी तकनीक पर आधारित है.
कैसे काम करता है बायोगैस प्लांट?
गोबर गैस प्लांट बनाना सुनने में जितना कठिन लगता है, उतना है नहीं. किसान ने बताया, इस सिस्टम में रोज लगभग 12 से 13 किलो गोबर और थोड़ा पानी मिलाकर घोल तैयार किया जाता है. यह मिश्रण प्लांट के मुख्य टैंक में डाला जाता है. अंदर यह धीरे-धीरे सड़ता है और जैविक अपघटन (decomposition) की प्रक्रिया से मीथेन गैस बनती है. यही मीथेन पाइपलाइन के जरिए रसोई तक पहुंचाई जाती है, जिससे गैस स्टोव जलता है. यह प्रक्रिया पूरी तरह प्राकृतिक है. इसमें किसी प्रकार की बिजली, रसायन या मशीनरी की जरूरत नहीं पड़ती. यही कारण है कि इसे पर्यावरण के लिए भी सुरक्षित और टिकाऊ माना जाता है.
गांव की महिलाओं के लिए बड़ी राहत
गांव की महिलाएं बताती हैं कि पहले उन्हें खाना बनाने के लिए लकड़ी जलानी पड़ती थी या फिर एलपीजी सिलेंडर पर निर्भर रहना पड़ता था. लकड़ी से धुआं उठता था और सिलेंडर महंगा होता जा रहा था. लेकिन, अब बायोगैस के इस जुगाड़ से घर की रसोई धुएं से मुक्त हो गई है और गैस मुफ्त में उपलब्ध है. रामेश्वर की पत्नी कहती हैं, “अब ना सिलेंडर का झंझट है, ना धुएं से आंखों में जलन. इस गैस से खाना जल्दी बनता है और स्वाद भी बढ़िया आता है.”
फायदे सिर्फ रसोई तक सीमित नहीं
गोबर गैस प्लांट का एक और बड़ा फायदा यह है कि इसमें बचे हुए अवशेष (slurry) को खेतों में खाद के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. इस प्राकृतिक खाद से मिट्टी की उर्वरक क्षमता बढ़ती है और रासायनिक खादों पर निर्भरता घटती है. इससे न सिर्फ ऊर्जा की बचत हो रही है, बल्कि किसानों को अतिरिक्त आर्थिक लाभ भी मिल रहा है. खेतों में पैदावार बेहतर हो रही है और पर्यावरण भी प्रदूषण से बच रहा है.
प्रेरणा बन रहा यह जुगाड़
रामेश्वर पाटिल का यह प्रयास अब आसपास के कई गांवों के लिए प्रेरणा बन चुका है. लोग उनसे बायोगैस प्लांट लगाने की विधि सीखने आ रहे हैं. उन्होंने बताया कि प्लांट की शुरुआती लागत थोड़ी होती है, लेकिन एक बार बनने के बाद यह सालों तक चलता है और खर्च लगभग शून्य होता है. उनका कहना है, “अगर हर गांव में दो-तीन ऐसे प्लांट लग जाएं, तो सिलेंडर पर निर्भरता काफी हद तक कम हो जाएगी.”