छिंदवाड़ा में जानलेवा कफ सिरप कोल्ड्रिफ पीने से 25 बच्चों की मौत हो गई।श्रीसन फॉर्मा की इस दवा को परासिया के डॉक्टर प्रवीण सोनी पिछले 10 सालों से प्रिस्क्राइब कर रहे थे। दवा कंपनी और डॉ. प्रवीण सोनी के बीच एक अघोषित करार था, हालांकि भास्कर से बातचीत
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दवा कंपनियों और डॉक्टरों के बीच गठजोड़ की ये केवल एक बानगी है। एक ऐसा ही चौंकाने वाला मामला 10 साल से मध्य प्रदेश मेडिकल काउंसिल की फाइलों में धूल फांक रहा है, जिसमें प्रदेश के 14 जिलों के 20 बड़े और प्रतिष्ठित प्राइवेट डॉक्टर एक फार्मा कंपनी के खर्च पर सपरिवार इटली की सैर कर आए थे। इसके एवज में इन डॉक्टरों ने इस कंपनी की दवाएं मरीजों को प्रिस्क्राइब की थी।
इस मामले की शिकायत 10 साल पहले हुई थी, लेकिन मध्य प्रदेश मेडिकल काउंसिल की सुस्ती और लापरवाही का आलम यह है कि वह आज भी इन डॉक्टरों को पत्र लिखकर यात्रा की टिकट और बैंक डिटेल मांग रही है। जबकि नियमों के मुताबिक, काउंसिल को किसी भी शिकायत का निपटारा अधिकतम 6 महीने के भीतर कर देना चाहिए।
10 साल की लंबी नींद के बाद, जब शिकायतकर्ता ने हाईकोर्ट में याचिका दायर करने की चेतावनी दी, तब जाकर काउंसिल ने सख्ती दिखाते हुए 30 सितंबर को इन डॉक्टरों को नोटिस भेजकर पूछा है कि उनके खिलाफ एक्शन क्यों न लिया जाए? पढ़िए रिपोर्ट
मप्र मेडिकल काउंसिल ने 30 सितंबर को ये लैटर जारी किया है और 20 डॉक्टरों को 15 दिन में जवाब देने को कहा है।
10 साल पहले विदेश यात्रा, आज तक सिर्फ नोटिस इस पूरे मामले की जड़ें 10 साल पुरानी हैं। रायपुर के एक व्हिसल ब्लोअर और सामाजिक कार्यकर्ता विकास तिवारी ने 28 अगस्त, 2015 को मध्य प्रदेश मेडिकल काउंसिल में एक लिखित शिकायत दर्ज कराई थी। शिकायत में उन्होंने सबूतों के साथ दावा किया था कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुल 28 प्राइवेट डॉक्टर 13 जुलाई से 21 जुलाई, 2014 तक इटली के खूबसूरत शहरों वेनिस और पोर्टोरोज में घूमने गए थे।
यह कोई सामान्य छुट्टी नहीं थी। यह एक ‘स्पॉन्सर्ड’ यात्रा थी, जिसका पूरा खर्च मुंबई की एक बड़ी फार्मा कंपनी ‘यूएसवी लिमिटेड’ ने उठाया था। विकास तिवारी ने अपनी शिकायत में दावा किया कि यह यात्रा इन डॉक्टरों को इसलिए इनाम के तौर पर दी गई थी, क्योंकि वे मरीजों को इसी कंपनी की दवाएं लिखते थे, जिससे कंपनी को भारी मुनाफा हो रहा था। यह सीधे तौर पर मेडिकल एथिक्स का उल्लंघन था।

MP में सुस्ती, छत्तीसगढ़ में फुर्ती यह मामला दो राज्यों की मेडिकल काउंसिलों की कार्यप्रणाली के अंतर को भी उजागर करता है। शिकायतकर्ता विकास तिवारी बताते हैं, ‘मैंने इसी विदेश यात्रा पर गए छत्तीसगढ़ के दो डॉक्टरों की शिकायत छत्तीसगढ़ मेडिकल काउंसिल को भी की थी। वहां मेरी शिकायत पर तत्काल कार्रवाई हुई।
काउंसिल ने न केवल डॉक्टरों को नोटिस जारी किया, बल्कि ट्रिप स्पॉन्सर करने वाली फार्मा कंपनी को भी नोटिस देकर जवाब मांगा। महज 4 महीने के भीतर जांच पूरी कर दोनों डॉक्टरों के लाइसेंस रद्द कर दिए गए।’ इसके उलट, मध्य प्रदेश मेडिकल काउंसिल ने 10 सालों में इन 20 डॉक्टरों को सिर्फ चार नोटिस भेजे हैं।

शिकायतकर्ता ने कहा- हाईकोर्ट जाऊंगा काउंसिल की कार्रवाई इतनी लचर थी कि वह 10 साल में इन डॉक्टरों के पासपोर्ट, बैंक डिटेल्स और पिछले तीन सालों के बैंक डिटेल तक नहीं मंगवा पाई। हद तो तब हो गई जब काउंसिल ने इस मामले की पुष्टि के लिए शिकायतकर्ता विकास तिवारी से ही डॉक्टरों की यात्रा की सारी जानकारी मांग ली। जबकि छत्तीसगढ़ काउंसिल ने खुद कंपनी से जानकारी निकलवा ली थी।
विकास तिवारी कहते हैं, ‘जब 10 साल बाद भी कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई, तो मैंने काउंसिल को पत्र लिखकर चेतावनी दी कि अगर अब भी कुछ नहीं हुआ तो मैं इस मामले को लेकर जबलपुर हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर करूंगा। मेरी इसी चेतावनी के बाद काउंसिल हरकत में आई और अब अंतिम नोटिस जारी किया गया है।’

10 साल बाद ‘अंतिम चेतावनी’, आगे क्या? हाईकोर्ट की चेतावनी के बाद, एथिक्स कम डिसीप्लीनरी कमेटी ने 7 अगस्त, 2025 को इस मामले की सुनवाई की। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में माना कि डॉक्टरों को अपने बचाव में पासपोर्ट, आईटीआर (आयकर रिटर्न), ऑडिट रिपोर्ट और बैंक ट्रांजैक्शन डिटेल जैसे जरूरी दस्तावेज जमा करने के लिए चार बार पत्र भेजे गए, लेकिन उन्होंने कोई जानकारी नहीं दी।
अब परिषद ने इन डॉक्टरों को आखिरी मौका देते हुए आदेश दिया है कि वे इस पत्र के मिलने के 15 दिनों के भीतर मांगी गई जानकारी प्रस्तुत करें, नहीं तो उनके खिलाफ अंतिम आदेश जारी कर दिया जाएगा।काउंसिल की 10 साल की जांच का नतीजा यह है कि उसे अब तक सिर्फ 8 डॉक्टरों की यात्रा टिकट और 16 डॉक्टरों के पासपोर्ट ही मिल पाए हैं।
तीन डॉक्टर तो ऐसे हैं, जिनका सही पता तक काउंसिल 10 साल में नहीं ढूंढ पाई। जबकि शिकायतकर्ता का कहना है कि उन्होंने 50 रुपए के एफिडेविट के साथ सभी दस्तावेज और जानकारी जमा की थी।

सिर्फ डॉक्टर ही नहीं, फार्मा कंपनी पर भी हो एक्शन विकास तिवारी के मुताबिक इस तरह के मामलों में सिर्फ डॉक्टरों को दोषी ठहराना न्यायसंगत नहीं है। फार्मा कंपनियों पर भी सरकार के Uniform Code for Pharmaceutical Marketing Practices (UCPMP), 2024 के तहत कार्रवाई की जा सकती है। इसके तहत अनैतिक मार्केटिंग करने वाली कंपनी का लाइसेंस निलंबित किया जा सकता है।
ऐसी फार्मा कंपनियों का नाम सार्वजनिक कर उसे ब्लैकलिस्ट किया जा सकता है। विकास तिवारी के मुताबिक यह मामला स्वास्थ्य सेवा के उस स्याह पक्ष को उजागर करता है, जहां मरीजों की सेहत और जेब पर डॉक्टरों और दवा कंपनियों का गठजोड़ डाका डाल रहा है।

अधिकारी झाड़ रहे पल्ला भास्कर ने जिम्मेदार संस्था मध्यप्रदेश मेडिकल काउंसिल की रजिस्ट्रार डॉ. दीप्ति चौरसिया से इस लेटलतीफी को लेकर सवाल पूछा, तो उन्होंने कहा कि एक साल पहले ही उन्होंने रजिस्ट्रार का काम संभाला है। इन शिकायतों की सुनवाई एथिक्स कमेटी कर रही है, जिसकी चेयरमैन, मप्र की डायरेक्टर ऑफ मेडिकल एजुकेशन डॉ. अरुणा कुमार है।
शिकायतों पर सुनवाई करने वाली मेडिकल एथिक्स कमेटी की चेयरपर्सन और डायरेक्टर ऑफ मेडिकल एजुकेशन (DME) अरुणा कुमार ने इस मामले पर बात करने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, ‘शिकायत मेडिकल काउंसिल में हुई है, आप उनसे बात करें। मैंने तो अभी इस शिकायत की फाइल ही नहीं देखी।’

ये सभी मप्र मेडिकल काउंसिल के रजिस्ट्रार हैं।
14 साल पहले ड्रग ट्रायल केस में सामने आ चुकी मिलीभगत इंदौर में साल 2008 से 2011 के बीच एक बड़ा और चर्चित मामला सामने आया था, जिसमें कई प्रतिष्ठित सरकारी डॉक्टरों पर मरीजों की जानकारी और सहमति के बिना उन पर अवैध रूप से दवाओं का परीक्षण (ड्रग ट्रायल) करने का आरोप लगा था। इस मामले की गंभीरता को देखते हुए राज्य की आर्थिक अपराध अन्वेषण शाखा (EOW) ने जांच कर केस दर्ज किया था। 4 पॉइंट्स में समझिए पूरा केस..
- क्या था मामला?: इंदौर के महाराजा यशवंतराव (MY) अस्पताल और महात्मा गांधी मेमोरियल (MGM) मेडिकल कॉलेज से जुड़े कई सरकारी डॉक्टरों ने कथित तौर पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दवा कंपनियों के साथ मिलकर उनकी नई दवाओं का परीक्षण अपने मरीजों पर किया। ये मरीज अक्सर गरीब, अशिक्षित और कमजोर पृष्ठभूमि के होते थे, जिन्हें यह पता ही नहीं होता था कि उन पर किसी दवा का प्रयोग किया जा रहा है।
- कैसे होता था ट्रायल?: डॉक्टरों पर आरोप था कि वे मरीजों को सामान्य इलाज बताकर इन परीक्षणों में शामिल कर लेते थे। कई मामलों में सहमति पत्रों पर मरीजों से या उनके परिजनों से धोखे से अंगूठा लगवाया गया या हस्ताक्षर कराए गए, जबकि उन्हें दस्तावेजों की असलियत पता नहीं थी। इन परीक्षणों में मानसिक रूप से बीमार रोगियों और बच्चों को भी शामिल किया गया था।
- आर्थिक फायदे का आरोप: जांच में यह बात सामने आई कि इन अवैध ड्रग ट्रायल्स के बदले में दवा कंपनियां डॉक्टरों को मोटी रकम देती थीं। EOW की जांच के अनुसार, कुछ डॉक्टरों ने इन परीक्षणों के माध्यम से करोड़ों रुपए कमाए थे।
- सेहत से खिलवाड़: सबसे गंभीर आरोप यह था कि इन दवाओं के कारण कई मरीजों की सेहत पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़े और कुछ मामलों में मौतें भी हुईं। EOW की रिपोर्ट में ट्रायल के दौरान हुई मौतें और दवाओं के मरीजों पर गंभीर असर का जिक्र भी किया था।
