दीपावली के दूसरे दिन, इंदौर से 45 किलोमीटर दूर गौतमपुरा में पारंपरिक ‘हिंगोट युद्ध’ होता है। इसमें ढोल-नगाड़ों के बीच हजारों की भीड़ के सामने दो गांवों के लोग एक-दूसरे पर जलते हुए अग्निबाण (हिंगोट) फेंकते हैं। यह मालवा की एक पारंपरिक प्रथा है, जो दो
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हालांकि, इस जानलेवा परंपरा पर अब कानूनी सवाल भी उठने लगे हैं, जिससे यह बहस का विषय बन गई है कि क्या इसे जारी रहना चाहिए। दरअसल, 2017 में हिंगोट युद्ध के दौरान एक युवक की मौत हो गई थी। इसके बाद हाईकोर्ट में इस पर रोक लगाने के लिए याचिका दायर की गई। पिछले 8 साल से याचिका लंबित है और कोर्ट ने जिम्मेदारों को नोटिस जारी किए है।
अभी तक कोर्ट में जवाब पेश नहीं हुआ है और ये खेल बदस्तूर जारी है। आखिर क्या है हिंगोट युद्ध की परंपरा, कब से शुरू हुई और क्यों इसे लेकर हर साल बहस होती है। पढ़िए रिपोर्ट
ऐसे होती है युद्ध की शुरुआत दीपावली के अगले दिन पड़वा पर शाम 4 बजे तुर्रा-गौतमपुरा व कलंगी-रूणजी के निशान लिए दो दल यहां पहुंचते हैं। सजे-धजे ये योद्धा कंधों पर झोले में भरे हिंगोट (अग्निबाण), एक हाथ में ढाल व दूसरे में जलती बांस की कीमची लिए नजर आते हैं। योद्धा सबसे पहले बड़नगर रोड स्थित देवनारायण मंदिर के दर्शन करते हैं।
इसके बाद मंदिर के सामने ही दर्शकों की सुरक्षा जालियों से घिरे मैदान में एक-दूसरे से करीब 200 फीट की दूरी पर दोनों दल आमने-सामने आ जाते हैं। गौतमपुरा के तुर्रा दल द्वारा जलता हुआ हिंगोट रूणजी के कलंगी दल पर फेंकने के साथ ही इस युद्ध की शुरुआत हो जाती है। जैसे ही हवा में एक अग्निबाण चलता है, देखते ही देखते मैदान के दोनों छोर से योद्धा एक-दूसरे पर जलते हिंगोट फेंकना शुरू कर देते हैं।
अंधेरा होने तक चलने वाले इस युद्ध में तुर्रा के योद्धा कलंगी के योद्धाओं से युद्ध करते हैं। युद्ध के दौरान जलता तीर लगने से कई लाेग घायल भी होते हैं, लेकिन इन सब के बीच उत्साह में कहीं कमी नहीं आती है। जैसे ही अंधेरा होता है युद्ध समाप्त कर दिया जाता है।

कब से शुरू हुई परंपरा किसी को नहीं पता
गौतमपुरा के रहने वाले अभिषेक बताते हैं कि ये परंपरा कब से शुरू हुई? ये कोई नहीं जानता। किंवदंती यह भी है कि रियासतकाल में गौतमपुरा क्षेत्र सीमा पर रक्षा चौकी हुआ करती थी। हमलावरों से बचाव के लिए सैनिकों ने सूखे बेल के फलों (हिंगोट) में बारूद भरकर हमला करना शुरू किया था। कहा जाता है इसी ‘युद्धाभ्यास’ ने बाद में धार्मिक परंपरा का रूप ले लिया।
धीरे-धीरे इसमें देव दिवाली और पड़वा की मान्यताएं जुड़ गईं और यह आज के ‘हिंगोट युद्ध’ के रूप में बदल गया। हालांकि स्थानीय लोग इसे युद्ध नहीं खेल की तरह लेते हैं। इसी गांव के रहने वाले राजेंद्र कहते हैं कि यह परंपरा हमारे पूर्वजों ने हमें दी है। रतलाम, उज्जैन, इंदौर सहित कई जिलों से लोग यहां युद्ध देखने आते हैं।

राजीव गांधी ने मालवा कला उत्सव में बुलवाया था 1984 में दिल्ली में हुए मालवा कला उत्सव में विशेष आमंत्रण पर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने तुर्रा व कलंगी दल के योद्धाओं ने इसका प्रदर्शन किया था। तब करीब 16 योद्धाओं को नगर के प्रकाश जैन दिल्ली ले गए थे। दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में करीब एक घंटे इसका प्रदर्शन किया गया था।

एक दूसरे पर हिंगोट फेंकते कलंगी और तुर्रा दल के युवक।
परंपरा के बीच खतरे की चिनगारी रतलाम, उज्जैन, इंदौर सहित कई जिलों से लोग यहां युद्ध देखने आते हैं। पिछले 30 सालों से हिंगोट युद्ध देखने आ रहे राजेंद्र कहते हैं कि मैं तो 3 बजे से ही मैदान के बाहर अपनी जगह पर कब्जा कर लेता हूं। ये अनूठा खेल है, जो बेहद रोमांचित करता है। इसका रोमांच भी भारत-पाकिस्तान के बीच होने वाले क्रिकेट मैच की तरह ही है।
हालांकि, इस युद्ध का रोमांच जितना गहरा है, उतना ही खतरनाक भी। हर साल 20 से 40 योद्धा घायल होते हैं, कई बार गंभीर झुलसने या आंखों की रोशनी जाने तक के मामले सामने आते हैं। लेकिन भीड़ का उत्साह और योद्धाओं की जोश कभी कम नहीं होता। पुलिस, फायर ब्रिगेड और एम्बुलेंस की टीमें पहले से तैनात रहती हैं। फिर भी हादसे थमते नहीं।

पिछले साल हिंगोट युद्ध के समय घायलों को ले जाती एम्बुलेंस।
2017 में युवक की मौत के बाद हाई कोर्ट तक पहुंचा मामला अक्टूबर 2017 में गौतमपुरा में बड़नगर तहसील के ग्राम दातरवां का 22 साल का किशोर मालवीय दोस्तों के साथ हिंगोट युद्ध देखने पहुंचा था। वह दर्शक दीर्घा में बैठा था तभी एक हिंगोट उसके सिर पर लगा। उसे गंभीर हालत में एमवाय अस्पताल लाया गया, जहां उसकी इलाज के दौरान मौत हो गई थी। करीब सवा घंटे चले हिंगोट युद्ध में 38 लोग घायल हुए थे।
मौत के बाद मध्यप्रदेश हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई थी। याचिका में कहा गया कि यह परंपरा अमानवीय है, इसमें बारूद भरी हिंगोट एक-दूसरे पर फेंकी जाती हैं, जिससे जान का खतरा रहता है। जल्लीकट्टू की तरह इस पर भी रोक लगाई जाए। कोर्ट ने तब राज्य सरकार और जिला प्रशासन से जवाब मांगा था। मामला अभी भी रिकॉर्ड पर है, लेकिन परंपरा हर साल जारी है।
कोर्ट में इस मामले की पैरवी करने वाले एडवोकेट प्रतीक माहेश्वरी बताते हैं,

कोर्ट से दोनों दलों को करीब दो साल पहले नोटिस जारी कर जवाब मांगा गया था। अभी तक जवाब पेश नहीं किया गया है। मामले में अगली सुनवाई की तारीख फिलहाल तय नहीं है।
