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Tantya Bhil ki Kahani: निमाड़ की धरती पर जन्मे टंट्या भील आज भी गरीबों और आदिवासियों के दिलों में जननायक के रूप में बसते हैं. उन्हें कोई रॉबिनहुड कहता है, कोई मामा तो कोई क्रांतिसूर्य. उन्होंने अंग्रेजों को लूटा, गरीबों में बांटा और फिरंगियों के खिलाफ गोरिल्ला युद्ध लड़ा.
टंट्या भील का जन्म वर्ष 1840 में मध्य प्रदेश के पूर्वी निमाड़ (खंडवा) जिले के पंधाना तहसील के बड़ाडा गांव में हुआ था. उनका असली नाम तांतिया था, लेकिन लोग प्यार से उन्हें टंट्या मामा कहकर बुलाते थे. गरीबों और वंचितों की मदद के लिए उन्होंने जो किया, उसने उन्हें गरीबों का मसीहा बना दिया.

टंट्या भील पारंपरिक युद्धकला में निपुण थे. वह शानदार निशानेबाज और तीरंदाज थे. उनके पास “दावा” नाम का विशेष हथियार था, जिसे वे बिजली की गति से चलाते थे. गुरिल्ला युद्ध में उनकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि अंग्रेज उनके सामने बेबस हो जाते थे.

19वीं सदी के उत्तरार्ध में उन्होंने करीब 15 वर्षों तक अंग्रेजों की सत्ता को चुनौती दी. वह न केवल एक योद्धा थे, बल्कि सामाजिक न्याय के पक्षधर भी थे. अंग्रेज उन्हें डाकू कहते थे, लेकिन आम जनता उन्हें नायक मानती थी. उन्होंने शोषितों और आदिवासियों के हक की आवाज बुलंद की.

टंट्या भील को भारतीय रॉबिनहुड कहा जाता है, क्योंकि वे अंग्रेजों और जमींदारों से लूटे गए धन को गरीबों में बांट देते थे. अकाल के दिनों में उन्होंने किसी को भूख से मरने नहीं दिया. कहा जाता है कि उनके समय में कोई भूखा नहीं सोता था.

इतिहासकारो की माने तो उनका कार्यक्षेत्र खरगोन के बड़वाह से लेकर बैतूल तक फैला हुआ था. घने जंगलों में छिपकर वे अंग्रेजों की गतिविधियों पर नजर रखते थे. अंग्रेजों को उन्हें पकड़ने में सात साल का समय लग गया. उनकी चालाकी और वीरता की कहानियां आज भी आदिवासी समाज में सुनाई देती हैं.

इंदौर से करीब 25 किलोमीटर दूर पातालपानी टंट्या भील की कर्मस्थली मानी जाती है. यहां वे अपने साथियों के साथ अंग्रेजों की रेलगाड़ियों को रोक लेते थे. उन रेलों में भरा अनाज, धन और नमक लूटकर वे भूखे गरीबों में बांट देते थे. उन्होंने लूट को विद्रोह का प्रतीक बना दिया था.

कहते हैं कि टंट्या का कद 7 फीट 10 इंच था और वे बहुत शक्तिशाली थे. उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से 24 बार संघर्ष किया और हर बार विजयी रहे. उन्होंने कभी अन्याय के आगे सिर नहीं झुकाया और न ही अपने आदर्शों से समझौता किया.

वर्ष 1888-89 में अंग्रेजों ने टंट्या भील को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया. जबलपुर की सत्र अदालत ने उन्हें 136 साल पहले 19 अक्टूबर 1889 को फांसी की सजा सुनाई. 4 दिसंबर 1889 को उन्हें फांसी दी गई. उन्होंने फांसी के फंदे को भी वीरता के साथ स्वीकार किया.

खरगोन जिले की झिरन्या तहसील के ग्राम कोठड़ा में आज भी टंट्या भील की विशाल प्रतिमा स्थित है. यहां हर साल मेले का आयोजन होता है. जिसमें हजारों लोग उनके जुटते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं. यह स्थान आज भी जननायक टंट्या की अमर गाथा सुनाता है.

उनकी स्मृति में खरगोन में क्रांतिसूर्य टंट्या भील यूनिवर्सिटी की स्थापना की भी गई है. इसमें खरगोन, बड़वानी, खंडवा, बुरहानपुर, अलीराजपुर जिलों के 83 कॉलेज जुड़े है. यह न सिर्फ एक शिक्षण संस्थान है, बल्कि टंट्या भील की वीरता और बलिदान का प्रतीक भी है.