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Chaugan Madhai Festival: मध्य प्रदेश के मंडला में फिर एक बार गोंडवाना संस्कृति की झलक देखने को मिली है. यह पर्व और परम्परा मां काली को समर्पित है आदिवासियों का ये त्यौहार बड़ी ही धूमधाम के साथ मनाकर खुशियां बनाते हैं. यहां मुख्य रूप से स्वर्ग की सीढ़ी आकर्षन का केंद्र बनती है.
मध्य प्रदेश के मंडला जिले से करीब 30 किलोमीटर दूर चौगान की मढ़िय़ा आदिवासियों का तीर्थ स्थली है. यहां पर नवरात्र में विशेष पूजा की जाती है. साथ ही यहां इन दिनों एक बार फिर स्वर्ग की सीढ़ी सज चुकी है. मालवा मे कई ऐसी परम्परा जिसका निर्वहन आज भी किया जाता है.

वैसे ही यहां ग्राम पंचायत चौगान में चंडी मड़ई की शुरुआत हो गई है, जहां गोंडवाना संस्कृति की अनोखी झलक देखने को मिलती है. यह कोई मामूली परम्परा नहीं बल्कि इसमे ऐतिहासिक मड़ई में हमेशा की तरह हजारों की तादाद में गोंड आदिवासी विविध परिधानों में सज धज कर धार्मिक उत्साह के साथ पहुंचे हैं.

इस परम्परा का निर्वहन करने सैकड़ों लोग पहुंचते हैं. साथ ही आस्था के सैलाब मे यहा लोगों के हाथों में चंडियां देखने को मिलती है जो लोग लेकर पहुंचे हैं. इस दौरान आदिवासियों की रंग बिरंगी वेशभूषा, परंपरागत संगीत और नृत्य से जो माहौल बनता है, वो देखने लायक होता है. यहां आने वाले अधिकतर ग्रामीण सफेद वस्त्रों में ही नजर आते हैं. हालांकि, पगड़ियां पीले रंग की होती है.

कई लोग अलग-अलग रूप से देवी-देवताओं की आरधना करके अपनी आस्था प्रकट करते हैं. वैसे ही चौगान की मड़ई चंडी लेकर भी मान्यता है कि, इस दिन पूरे दिन उपवास रखकर चौगान की मड़ई में चंडी लेकर लोग आते हैं. चंडी माता और प्रकृति को बांस, मोर पंख और ध्वजा के साथ प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया जाता है.

इतना ही नहीं उसके बाद फिर चंडी की पूजा करते हैं. कितने बड़े ही अधिकारी या किसी बड़े पद पर क्यों ना हों, पांच दुकानों पर भीख मांग कर चंडी को चढ़ाना होता है. इसके बाद ही हम सभी अन्न जल ग्रहण करते हैं. इसके साथ आदिवासियों के शुभ कार्यो की शुरुआत होती है.

पूजा की शुरूआत ‘स्वर्ग की सीढ़ी’ से की जाती है. सबसे पहले सुतली के सन से जमीन से करीब 25 फीट ऊपर जाकर स्वर्ग की सीढ़ी पर दीप जलाया जाता है. फिर पंडा उस सन को बिना मुढ़े जमीन पर फेंक देता है. फिर उसी सन को उठाकर मढ़िया के लाल कपड़ों और बैच पहनकर खड़े चपरासी उसे उठाकर नीचे रखे दीयों को जलाते हैं. दीपक मंदिर के कोने-कोने पर रखे जाते हैं. इसके बाद शुरू होती चौगान की मढ़िया की महाआरती की जाती है.

इसी के तहत कई आदिवासियों अपने सिर पर तोते की आकृति बनाते हैं जिसे स्थानीय भाषा में ‘नकचुंडा’ कहा जाता है. आदिवासी बताते हैं कि करीब 50 साल पहले यह प्रतीक पहली बार मढ़िया में चढ़ाया गया था, जो बाद में एक समुदाय को दान में दे दिया गया. तब से हर साल इस प्रतीक रूप को श्रद्धापूर्वक धारण किया जाता है.

इस स्थान पर श्रद्धा रखने वाले लोगों का मानना है कि चौगान की मढ़िया में देवी का वास है. लोग यहां दूर-दूर से आकर अपनी समस्याओं से निजात पाते हैं. यहां आने के बाद सबसे पहले नारियल अगरबत्ती के साथ अपनी मनोकामना देवी से कहनी होती है और पंडा के सामने अर्जी लगानी होती है. पंडा के द्वारा लगातार जलती आ रही धूनी की एक चुटकी भभूत मां के आशीर्वाद के रूप में दी जाती है.