75 वर्षीय जयराम, जिन्हें भोपाल गैस त्रासदी से पहले से शहर से मोहब्बत है, कहते हैं कि सेवा का फल ही यहाँ उन्हें मजबूरन बांधे रखता है. “मैंने अपने बच्चों को तो बहुत पढ़ाया, पर अब जीवन यहीं आश्रम में कट रहा है” . पत्नी का निधन नौ वर्ष पहले हो गया. इस आश्रम में पिछले 12 साल से उनका बसेरा है. बच्चों के साथे मिलने आते उनके नाती-पोता ही सबसे बड़ी खुशी है.
प्रबंधक समीरा मसीह का मानना है कि ‘आसरा’ केवल आश्रय नहीं, बल्कि ये परिवार है. “यहाँ 48 महिलाएँ और 37 पुरुष हैं,” और तीन बुज़ुर्ग जिनकी पहचान भी नहीं मिल पाई, उन्हें भी हम अपना मानते हैं.” ये तीनों आंध्र प्रदेश से ऐसे आए, जैसे कोई दस्तक देता है अँधेरे में और हमें सुनने का जुनून होता है उनका.
इस कहानी में इंसानियत की एक मधुर प्रतिध्वनि है तन्हा जीवन को एक नया घर देने की, बिछड़े रिश्तों को जुड़ने की, और समाज की आखिरी उम्मीदों को जीवित रखने की. ‘आसरा’ सिर्फ आश्रम नहीं, एक नाम है जहाँ जीवन फिर कहते-हँसते, ज्यों कहीं से कुछ खो गया हो तो कहीं से मिल गया हो.