प्रवचन देते मुनिश्री निर्भीक सागर महाराज।
बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने रिसर्च किया कि हम मृत्यु को, आत्मतत्त्व को रोक सकें। इसके लिए बड़ी-बड़ी कांच की पेटियों में अंतिम सांस लेने वाले जीव को रखा गया, परंतु मृत्यु को और उस जीव-तत्त्व को रोक नहीं सके। बड़े-बड़े ज्योतिषों ने मंगल, शुक्र, केतु, शनि-
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यह धर्मोपदेश गुना के चौधरी मोहल्ला स्थित महावीर भवन में चातुर्मासरत निर्यापक मुनिश्री योग सागर महाराज के ससंघ मुनिश्री निर्भीक सागर महाराज ने दिए। मुनिश्री ने कार्तिके अनुप्रेक्षा ग्रंथ का स्वाध्याय कराते हुए कहा कि तिर्यंच और मनुष्य गति में ही अकाल-मरण होता है। नरक और देवगति में अकाल-मरण नहीं हो सकता। आयु-कर्म शेष है तो अकाल-मरण को रोकने में औषधि काम आती है, आयु को बढ़ाने में नहीं। इसलिए मुनिराज की दीक्षा लेने के बाद ही उनका संल्लेखना व्रत चालू हो जाता है।
मुनिश्री ने कहा कि व्यक्ति की आयु के क्षय होने से मरण होता है। इस मरण को रोकने के लिए कोई कितना भी बलशाली, शक्तिशाली योद्धा हो, वह भी कितने ही तंत्र-मंत्रों से, महामृत्युंजय मंत्रों की साधना करे, पर वह भी मृत्यु पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, उसे मरना ही होगा। परंतु हमारा आयु-कर्म शेष है और एक्सीडेंट, विष, जहर भी खा लें वे तो औषधि और उपचार काम आते हैं। हमारा जीवन बच जाता है, मगर आयु को बढ़ाने में औषधि काम नहीं आती।
मात्र “ओम्” शब्द में ही पांचों परमेष्ठी समाहित मुनिश्री ने बताया कि आचार्यश्री विद्यासागर महाराज कहते थे कि मुनिराजों की दीक्षा लेते ही उनके संल्लेखना के व्रत चालू हो जाते हैं। अंत में जिस श्रद्धा, भक्ति, समर्पण से उन्होंने साधना की है, अंतिम संल्लेखना भी महामंत्र णमोकार का, पंच परमेष्ठी का, ओम शब्द का उच्चारण करते होती है। मात्र “ओम्” शब्द में ही पांचों परमेष्ठी समाहित हैं, यह मंत्र हमें मोक्ष की मंजिल तक साथ देता है।
इस दौरान मुनिश्री ने पिछले वर्ष चातुर्मास में मुनिश्री निर्दोष सागरजी, निर्लोभ सागरजी, निरूपम सागरजी महाराज द्वारा णमोकार मंत्र की जाप मशीन द्वारा गुना समाज में करोड़ों मंत्रों का जाप करने की प्रेरणा दी थी। वह मंत्र हमें अशुभ कर्मों से शुभ कर्मों की ओर ले जाने वाला है। ऐसे महामंत्र का स्मरण प्रतिक्षण करते रहना चाहिए।
इस अवसर पर मुनिश्री ने कहा कि जो विद्या को ग्रहण करना चाहता है, वह विद्यार्थी है। जो सुख चाहता है, वह विद्यार्थी नहीं हो सकता। सुख-भोग, विलासिता को त्याग कर ही हम गुरु या शिक्षक से ज्ञान अर्जन कर सकते हैं। अहंकार हमें अंधा बना देता है। इस अहंकार को त्याग कर हमें सच्चे ज्ञान को प्राप्त करना है। बच्चों को, विद्यार्थियों को पत्थर दिल नहीं, फूल की तरह कोमल हृदय बनना चाहिए। तभी वह शिक्षक-शिक्षिकाओं, गुरुजनों से ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। जब पढ़-लिख कर वह बड़े पदों पर आसीन होंगे, तब उन्हें शिक्षकों द्वारा दिया गया ज्ञान याद आएगा।