खंडवा हादसा: गांव में नहीं जले चूल्हे, हर आंख नम, झटके में 11 जिंदगियां खत्म

खंडवा हादसा: गांव में नहीं जले चूल्हे, हर आंख नम, झटके में 11 जिंदगियां खत्म


खंडवा. मध्य प्रदेश के खंडवा जिले की पंधाना तहसील में बसा है एक शांत, प्राकृतिक सौंदर्य से घिरा छोटा सा गांव पाडल फाटा. यह गांव ज्यादातर आदिवासी समुदाय से बसा है. यहां के लोग प्रकृति के करीब रहते हैं लेकिन साल 2025 के एक त्योहार भरी सुबह, इस गांव की किस्मत में जो लिखा था, उसने पूरे क्षेत्र को हिलाकर रख दिया. दशहरा पर्व के दिन जहां हर गांव, हर घर में रौनक होती है, वहां पाडल फाटा में उस दिन कोई चूल्हा नहीं जला. कहीं कोई हलचल नहीं थी, सिर्फ मातम था, सन्नाटा था और घरों में अपनों को खो देने का असहनीय दर्द था.

अरदला डैम, जो गांव के पास बना है, जहां गर्मी के दिनों में गांव के लोग कुछ देर चैन की सांस लेते हैं, वही डैम, विजयादशमी के दिन 11 जिंदगियों को निगल गया. 11 लोग, जिनमें बच्चे भी थे, युवक भी और महिलाएं भीं. सभी एक साथ डैम में ट्रॉली पलटने से डूब गए. कुछ को संभलने का मौका तक नहीं मिला. गांव में जब खबर पहुंची, तो मानो किसी ने दिल के टुकड़े कर दिए हों. किसी ने बेटा खोया, किसी ने बहन, किसी ने मां और किसी ने अपना पूरा परिवार.

हर ओर रोने-चिल्लाने की गूंज
पाडल फाटा की भौगोलिक स्थिति भी इस दर्द को और बढ़ा गई. यहां घर एक-दूसरे से काफी दूरी पर बसे हैं. पक्की सड़कें नहीं, सिर्फ पगडंडियां हैं, जो खेतों, झाड़ियों और से होते हुए घरों तक पहुंचती हैं. जब लाशें डैम से निकाली गईं, तो पूरे गांव में रोना-चिल्लाना गूंज उठा लेकिन सबसे दुखद दृश्य तो वह था, जब इन शवों का अंतिम संस्कार हुआ.

गांव के हर कोने से उठ रहा था धुआं
घर दूर-दूर होने और रास्ते बेहद कठिन होने के कारण परिजन अपनों का अंतिम संस्कार अपने-अपने खेतों में करने को मजबूर हुए. कोई अपने बेटे को वहीं विदा कर रहा था, जहां वो बचपन में खेला करता था, तो कोई अपनी बहन की चिता सजाते हुए सोच रहा था कि कल तक तो वो इसी खेत में फसल काट रही थी. हंसी-ठिठोली कर रही थी. गांव के हर कोने में धुआं उठ रहा था. धुएं से भरे दिन में सूरज भी मानो गायब था. हर चिता एक दर्दनाक कहानी कह रही थी. एक ऐसा दर्द, जिसे शब्दों में बयां करना आसान नहीं. त्योहार का दिन, जो उमंग, मिठास और एकता का प्रतीक होता है, वह पाडल फाटा में मातम, खामोशी और जुदाई का दिन बन गया.

बस एक-दूसरे का दर्द बांट रहे थे लोग
दूर-दूर से रिश्तेदार पहुंचे. कोई पैदल आया, कोई बाइक से, सबकी आंखों में बस आंसू थे. किसी के पास कहने को कुछ नहीं था. सिर्फ एक-दूसरे का हाथ पकड़कर लोग एक-दूसरे का दर्द बांट रहे थे. यह हादसा सवाल था उस व्यवस्था पर भी, जो अब तक इन इलाकों तक सुरक्षा, जागरूकता और आपात सुविधाएं नहीं पहुंचा पाई. न कोई चेतावनी बोर्ड, न कोई निगरानी और न ही कोई सुरक्षा व्यवस्था. अरदला डैम पर न तो रेलिंग थी, न कोई जीवन रक्षक उपकरण. कोई बचाने वाला नहीं था, सिर्फ पानी था, गहराई थी और उन 11 मासूम जिंदगियों की अंतिम सांसें.

सूनी पड़ीं पाडल फाटा की पगडंडियां
आज पाडल फाटा की पगडंडियों पर वो खिलखिलाहट नहीं है, जो पहले सुनाई देती थी. बच्चे अब डैम की ओर देखने से डरते हैं. माताएं अपने बच्चों को सीने से चिपकाकर सोती हैं और हर त्योहार एक डर की याद बनकर लौटता है. 11 चिताएं तो बुझ गईं लेकिन गांव के दिलों में जो आग लगी है, वो अब भी धधक रही है. यह घटना एक संदेश है कि हम अब और इंतजार नहीं कर सकते. हमें ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में बुनियादी सुरक्षा, जन-जागरूकता और इमरजेंसी व्यवस्था पहुंचानी ही होगी ताकि कोई और पाडल फाटा फिर कभी ऐसा दिन न देखे. उन 11 जिंदगियों की याद में एक सवाल हम सबके लिए छोड़ गया ये गांव, ‘क्या हम सिर्फ शोक मनाते रहेंगे या कुछ बदलेंगे भी.’



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