17 अगस्त को संगीत मार्तंड पंडित जसराज के अवसान से यूं लगा जैसे सुरों की दुनिया में सन्नाटा सा छा गया हो. भारतीय शास्त्रीय संगीत को उन्होंने विश्व फलक तक पहुंचाया. उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि मैं भगवान के लिए गाता हूं और गायक़ी के दौरान मेरा सीधा संवाद उसी ईश्वर से होता है.
पद्मभूषण और अनेकों सम्मानों से नवाज़े गए और ख़्याल गायक़ी और ठुमरी में पारंगत पंडित जसराज 1980 में पंडित गंगाप्रसाद पाठक ललित कला न्यास के आयोजन में विदिशा पधारे थे. उस वक़्त वे अपनी गायक़ी में उरूज़ पर थे, उन जैसी बड़ी शख़्सियत को बुलाना कोई आसान काम नहीं था. पाठक न्यास के अध्यक्ष डॉ. विजय बहादुर सिंह जी ने बताया कि उन्हें विदिशा तक लाने में अगर ख़ास किरदार किसी का था तो वो थे स्व. दीपक पाठक जो पंडित गंगाप्रसाद पाठक के बड़े पुत्र थे साथ ही एक काबिल गायक और संगीतकार भी थे. पंडित जसराज गंगाप्रसाद पाठक जी से सुपरिचित थे, और यहां तक उन्हें खींच लाने की वज़ह वही पुराने ताल्लुक़ात थे.
पंडित जसराज विदिशा आने के दौरान न्यास के विशेष सहयोगी और संस्थापक सदस्य श्री सुखदेव लड्ढा जी के घर पर ही रुके थे. उनका कार्यक्रम जैन महाविद्यालय के परिसर में हुआ था. कार्यक्रम में पधारते ही उन्होंने सर्वप्रथम ये कहा कि यहां आना मेरे लिए किसी पूजन से कम मायने नहीं रखता. और वे सबसे बहुत सम्मान के साथ पाठक जी के चित्र पर माल्यार्पण करने गए और माल्यार्पण कर तस्वीर की और उन्होंने पीठ नहीं की, बल्कि उन्हीं की और मुंह किए हुए कुछ क़दम उल्टे पांव पीछे की और चले और फ़िर अपने स्थान पर विराजे. ये बिल्कुल सही है कि बड़े कलाकारों की हर बात बड़ी ही होती है.संगीत प्रेमियों से खचाखच भरे हुए सभागृह में पंडित जसराज को सुनने का आनंद उन्होंने ही महसूस किया जो वहां मौज़ूद थे. कार्यक्रम के पूर्व जैन महाविद्यालय के प्राचार्य कक्ष में उन्होंने अपना रियाज़ किया था. जब उनसे डॉ. विजय बहादुर सिंह जी ने पूछा कि आपके साथ सारंगी वादक कौन आए हैं, तब उन्होंने बताया सारंगी वादक कोई नहीं है, मेरे साथ अप्पा जलगांवकर पधारे हैं जो हारमोनियम बजाएंगे और आपको ऐसा हारमोनियम सुनने मिलेगा कि सारंगी की कमी महसूस ही नहीं होगी, और यही हुआ भी अद्भुत प्रस्तुति और शानदार संगत. उस शाम जिसने भी उन्हें सुना वो गदगद हो गया.
पंडित जसराज मेवाती घराने से ताल्लुक़ रखते थे, और उसी घराने के उनसे सीखे हुए आज लगभग 76 शिष्य हैं, जो अपनी गायन प्रतिभा से ये साबित कर रहे हैं कि वे उनके शिष्य हैं. वे बहुत सहज और सादगी से भरपूर थे, और बहुत सहजता से कवि लेखक और कलाकारों के घर पहुंच जाते थे और बैठते थे. एक विशेष बात और जब पाठक न्यास ने उनका आयोजन किया था, तब न्यास का लगभग शुरुआती वक़्त था, और अर्थ समस्या भी थी, इसलिए पंडित जसराज को पारिश्रमिक भी नहीं दिया गया था, और न पंडित जसराज ने इस तरह की कोई मांग ही की. हां, डॉ. विजयबहादुर सिंह को इस बात की पीड़ा आज तक है.
वे विदिशा आने के दौरान पंडित गंगाप्रसाद पाठक के घर भी मिलने गए. और कई पुरानी यादें साझा भी की. उनके परिवारजन से उन्होंने कहा कि 1955 में गंगाप्रसाद पाठक ने उन्हें मुम्बई की सुर सिंगार संसद में प्रस्तुति के लिए अपने प्रयासों से भेजा था, और कहा था ऐसा गाकर आना कि मेरा नाम नीचा न हो. सच अद्भुत और कितने संवेदनशील लोग हुआ करते थे.
भारत भवन के आजीवन ट्रस्टी रहे पंडित जसराज के न रहने पर उनकी बिटिया मधुरा जसराज ने कहा कि ऐसे संगीत मार्तंड का भगवान कृष्ण स्वर्ग के द्वार पर स्वागत करेंगे जहां वो अपना पसंदीदा भजन सुनाएंगे… ओम नमो भगवते वासुदेवा….!!
सच विदिशा में पंडित जसराज की ख़ास आमद का ज़िक्र एक ऐसी तारीख़ का ज़िक्र है जिसे याद कर हम भावविभोर हो जाते हैं. मैं उन्हें नमन करता हूं. मुझे उक्त उल्लिखित जानकारी डॉ. विजयबहादुर सिंह जी और पाठक जी के छोटे पुत्र गायक और संगीतज्ञ श्री प्रकाश पाठक के सहयोग से उपलब्ध हुई.
(ये लेखक के निजी विचार हैं. लेखक पंडित गंगा प्रसाद पाठक ललित कला न्यास, विदिशा के कार्यकारिणी सदस्य हैं.)