Birthday Special: चोट लगने पर मरहम की तरह याद आते हैं दोस्त पुराने, भगवत रावत की कविताएं | book-review – News in Hindi

Birthday Special: चोट लगने पर मरहम की तरह याद आते हैं दोस्त पुराने, भगवत रावत की कविताएं | book-review – News in Hindi


भगवत रावत की कविताएं (Bhagwat Rawat Poem): आज हिंदी के प्रसिद्ध कवि भगवत रावत का जन्मदिन है. भगवत रावत प्रगतिशील कवि और निबन्ध लेखक थे. भगवत रावत ने समाज की अमानवीय स्थितियों के प्रति विरोध में भी कई कविताएं लिखी. वो ‘वसुधा’ पत्रिका के संपादक भी रहे. आज भगवत रावत का जन्मदिन है. इस ख़ास मौके पर आज हम आपके लिए कविताकोश के साभार से लाए हैं भगवत रावत की कविताएं…

1. वे इस पृथ्वी पर
कहीं न कहीं कुछ न कुछ लोग हैं ज़रूर
जो इस पृथ्वी को अपनी पीठ परकच्छपों की तरह धारण किए हुए हैं
बचाए हुए हैं उसे

अपने ही नरक में डूबने से
वे लोग हैं और बेहद नामालूम घरों में रहते हैं
इतने नामालूम कि कोई उनका पता
ठीक-ठीक बता नहीं सकता
उनके अपने नाम हैं लेकिन वे
इतने साधारण और इतने आमफहम हैं

कि किसी को उनके नाम
सही-सही याद नहीं रहते
उनके अपने चेहरे हैं लेकिन वे
एक दूसरे में इतने घुले-मिले रहते हैं
कि कोई उन्हें देखते ही पहचान नहीं पाता
वे हैं, और इसी पृथ्वी पर हैं
और यह पृथ्वी उन्हीं की पीठ पर टिकी हुई है
और सबसे मज़ेदार बात तो यह है कि उन्हें
रत्ती भर यह अंदेशा नहीं
कि उन्हीं की पीठ पर
टिकी हुई यह पुथ्वी.

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2. जब से भू मंडल नहीं रहा भौगोलिक
चढ़ गया है भूमंडलीकरण का बुखार
जब से ग़ायब होना शुरू हुई उदारता
फैला प्लेग की तरह
उदारतावाद
जब से उजड़ गए गाँवों, कस्बों और शहरों के खुले मैदानों के बाज़ार
घर-घर में घुस गया नकाबपोश
बाज़ारवाद

यह अकारण नहीं कि तभी से प्रकृति ने भी
ताक पर रखकर अपने नियम-धरम
बदल दिए हैं अपने आचार-विचार

अब यही देखिए कि पता ही नहीं लगता
कि खुश या नाराज़ हैं ये बझल
जो शेयर दलालों के उछाले गए सेंसेक्स की तरह
बरसे हैं मूसलाधार इस साल

जैसे कोई अकूत धनवान
इस तरह मारे अपनी दौलत की मार
कि भूखे भिखारियों को किसी एक दिन
जबरदस्ती ठूँस ठूँसकर तब तक खिलाए सारे पकवान
जब तक वे खा-खाकर मर न जाएं

जैसे कोई जलवाद केवल अपने अभ्यास के लिए
बेवजह मातहतों पर तब तक बरसाए
कोड़े पर कोड़े लगातार
जब तक स्वयं थक-हारकर सो न जाए

दूसरी तरफ देखिए यह दृश्य
कि ऐसी बरसात में, नशे में झूमतीं,
अपनी ही खुमारी में खड़ी हैं अविचलित
ऊँची-नीची पहाड़ियों
स्थित-प्रज्ञों की तरह अपने ही दंभ में खड़े हैं
ऊँचे-ऊँचे उठते मकान

और दुख से भी ज़्यादा दुख में
डूबी हुईं है सारी की सारी निचली बस्तियाँ
बह गए जिनके सारे छान-छप्पर-घर-बार
इन्हें ही मरना है, हव से, पानी से, आग से
बदलते हुए मौसम के मिजाज़ से
कभी प्यास से, कभी डूबकर
कभी गैस से
कभी आग से.

3.जब कहीं चोट लगती है, मरहम की तरह

दूर छूट गए पुराने दोस्त याद आते हैं.
पुराने दोस्त वे होते हैं जो रहे आते हैं, वहीं के वहीं

सिर्फ़ हम उन्हें छोड़कर निकल आते हैं उनसे बाहर.
जब चुभते हैं हमें अपनी गुलाब बाड़ी के काँटे

तब हमें दूर छूट गया कोई पुराना

कनेर का पेड़ याद आता है.
देह और आत्मा में जब लगने लगती है दीमक

तो एक दिन दूर छूट गया पुराना खुला आंगन याद आता है

मीठे पानी वाला पुराना कुआँ याद आता है

बचपन के नीम के पेड़ की छाँव याद आती है.
हम उनके पास जाते हैं, वे हमें गले से लगा लेते हैं

हम उनके कन्धे पर सिर रखकर रोना चाहते हैं

वे हमें रोने नहीं देते.
और जो रुलाई उन्हें छूट रही होती है

उसे हम कभी देख नहीं पाते.





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