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- The Enemies Of Success Are Fear, Anger, Laziness, Sleep, Demerits Like These, It Is Very Important To Stay Away From Them
नीमच17 घंटे पहले
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- कल्याण मंदिर स्तोत्र का भावार्थ समझाते हुए मुनिश्री संयम रत्न विजयजी ने कहा
हे स्वामिन्! यह निश्चित है कि मेरे नेत्र मोह के अंधकार से ढंक जाने के कारण पूर्व में मैंने एक भी बार आपके दर्शन नहीं किए। यदि आपके दर्शन हो जाते तो चारों ओर तीव्र गति से फैलने वाले अनर्थ मुझे पीड़ा नहीं दे पाते। अतः जो परमात्मा के एक बार भी भावपूर्वक दर्शन कर लेता है, उसके पाप, कष्ट क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। यह बात “कल्याण मंदिर स्तोत्र’ का भावार्थ समझाते हुए मुनिश्री संयम रत्न विजयजी ने कही।
विकास नगर स्थित श्री जैन श्वेतांबर महावीर स्वामी जिनालय की छाया में आयोजित चातुर्मास के लिए आचार्यश्री जयन्तसेन सूरिजी के सुशिष्य मुनिश्री संयम रत्न विजयजी व मुनिश्री भुवन रत्न विजयजी विराजित है। आराधना भवन में नियमित प्रवचन के दौरान मुनिश्री संयम रत्न विजयजी ने कहा कि जो त्याग करता है, वह प्रसन्न रहता है। परस्त्री, परधन, परनिंदा, परिहास और बड़ों के सामने चंचलता इन सब का त्याग करना चाहिए। त्याग का प्रेम के साथ गहरा संबंध है।
प्रेम के बिना त्याग नहीं होता और त्याग के बिना प्रेम असंभव है। अमरता धन से नहीं, त्याग से प्राप्त होती है। मोह जाल में फंसा व्यक्ति त्याग नहीं कर पाता और जो सब कुछ त्याग देता है, वह मुक्ति के मार्ग पर बढ़ जाता है। त्याग से बढ़कर जगत में कोई दूसरी ताकत नहीं है। प्राणी कर्म का तो त्याग नहीं कर सकता, लेकिन कर्मफल का त्याग करना भी त्याग है। जिसे सफलता प्राप्त करना है, उसे निद्रा, भय, क्रोध, आलस्य इन अवगुणों का त्याग कर देना चाहिए।
अहंकार त्याग देने पर मनुष्य सबका प्रिय हो जाता है, क्रोध छोड़ देने पर शोक रहित हो जाता है, आलस्य का त्याग कर देने पर धनवान हो जाता है और लोभ छोड़ देने पर सुखी हो जाता है। जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसे घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं और जो इच्छा से बंधा हुआ है, उसे वन में रहने से लाभ नहीं होता। सच्चा त्यागी जहां रहे वहीं वन और वहीं वन-कंदरा है। जिस आदमी की त्याग की भावना अपनी जाति से आगे नहीं बढ़ती,वह स्वयं स्वार्थी है और अपनी जाति को भी स्वार्थी बना देता है।
त्याग में तुरंत शांति मिलती है। त्याग का राग लगाने वाले की भव सागर से नैया तिर जाती है। रागी सबमें दोष देखता है और त्यागी सबमें सदगुण देखता है। त्याग का वृक्ष हमें सुख की छाया प्रदान कर माया की छाया से दूर करता है। त्याग का महत्व बड़ा अपूर्व है, जिसे धन्ना- शालिभद्रजी, मेघकुमार, जंबूस्वामी आदि अनेक महापुरुषों ने अपनाया है। उसी का जीवन धन्य होता है,जो अमृत व कल्पवृक्ष के समान त्याग के मार्ग पर चलता है।
मुनिश्री ने नवपद ओली आराधना के चतुर्थ दिवस उपाध्याय भगवंत की महिमा बताते हुए कहा कि मूर्ख को विद्वान बनाने का कार्य उपाध्याय भगवंत करते हैं। उपाध्याय स्वयं पढ़ते हैं और अन्य को भी पढ़ाते हैं। वे अध्ययन व अध्यापन में इतने लयलीन होते हैं कि बाह्य प्रवृत्तियां उन्हें प्रभावित नहीं कर पाती। आचार्य एवं उपाध्याय दोनों मिलकर सूत्र व अर्थ की रक्षा करते हुए शिष्यों में आध्यात्मिक विकास करने का कार्य करते हैं।