स्मृति शेष: मशहूर शायर फैज अहमद फैज को भोपाल लाने वाले मंजूर एहतेशाम ने शशि कपूर के साथ फिल्म स्क्रीन भी की थी शेयर

स्मृति शेष: मशहूर शायर फैज अहमद फैज को भोपाल लाने वाले मंजूर एहतेशाम ने शशि कपूर के साथ फिल्म स्क्रीन भी की थी शेयर


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भोपाल3 मिनट पहलेलेखक: राजेश गाबा

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मंजूर एहतेशाम का जीवित अवस्था

1973 में एक कहानी प्रकाशित हुई थी। नाम था ‘रमजान में मौत’. इस कहानी में एक किरदार के मौत एक इर्द-गिर्द रमजान के पवित्र महीने का ऐसा त्यौहार बुना गया कि आज भी बेहतरीन कहानियों में ‘रमजान में मौत’ का नाम लिया जाता है। अभी भी रमजान का ही महीना चल रहा है। मगर दुखद ये है कि इस कहानी को लिखने वाले मंजूर एहतेशाम जी 25 अप्रैल की देर रात इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए। कोरोना ने एक और शख्सियत को छीन लिया। वे जितनी बड़ी शख्सियत थे, उतने ही सहज-सरल इंसान। उन्होंने साहित्य सृजन के साथ एक्टिंग भी की और शशि कपूर के साथ स्क्रीन शेयर की। दैनिक भास्कर में हम आपको उनकी जिंदगी के ऐसे कई अनछुए पहलुओं से रूबरू कराते हैं। उनके करीबी रहे लोगों ने साझा किए अपने अनुभव और यादें।

ईद पर जमती थी महफिल, ईद की मिठास चली गई दोस्त के साथ
मंजूए एहतेशाम के दोस्त और पूर्व डीजीपी दिनेश जुगरान ने बताया कि मंजूर का पहले लीवर खराब हुआ था। फिर कोविड हो गया अभी। कोविड ने एक और शख्सियत को हमसे छीन लिया। पिछले साल उनकी पत्नी सरवर हुसैन का भी इंतकाल हो गया था। मेरी इनसे मुलाकात 25 साल पहले भोपाल में हुई थी। उस वक्त मैं स्पेशल डीजी था। तब से जो दोस्ती का सिलसिला बना वो चलता रहा। गजब का सेंस ऑफ ह्यूमर था उसमें। उसकी नॉलेज भोपाल और उसके कल्चर के बारे में जबरदस्त थी। वहीं उसकी कहानियों और उपन्यास में नजर आता था। हर ईद पर उसके घर में महफिल जमती थी। उसमें शहर के सारे साहित्यकार और कला बिरादरी के लोग इकट्‌ठे होते थे। मेरा तो इस शहर में इकलौता दोस्त था। वो भी चला गया मुझे अकेला छोड़कर। रमजान चल रहा है। ईद आएगी लेकिन न ईद की वो मिठास रहेगी, न ईद की वो खुशियां। अब क्या बोलूं।
जब मैं मुंबई जा रहा था तब उन्होंने कहा था मियां रूमी भोपाल को बंबई में जिंदा रखना
जाने-माने फिल्म राइटर-डायरेक्टर रूमी जाफरी ने बताया कि मंजूर एहतेशाम मेरे वालिद के काफी अच्छे दोस्त थे। अक्सर उनका मेरे घर आना होता था। मेरे वालिद भी उर्दू के साहित्यकार। अक्सर घर में उर्दू-अदब की महफिलें होती थीं। वो इतनी बड़ी शख्सियत होने के बाद भी सभी से बड़े प्रेम और आत्मीयता से मिलते थे यही उनकी खूबी थी। वो भोपाल की तहजीब, गंगा-जमुनी तहजीब को भी अपनी कहानियों और उपन्यासों में उतारते थे। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं राइटिंग में स्ट्रगल करने बंबई जा रहा हूं तो वे बेहद खुश हुए थे। तब उन्होंने मुझसे एक बात कही थी कि रुमी मियां भोपाल को बंबई में जिंदा रखना। इस जैसा गंगा-जमुनी तहजीब, अपनेपन, आपसदारी वाला शहर किसी मुल्क में नहीं। अपनी उर्दू-अदब कल्चर को उस चकाचौंध में मत घुमने देना। मैंने वहीं किया। आज इतने सालों बाद भी उनकी वो बातें याद आती हैं। वो भोपाल की शान थे। साहित्य में उनका बड़ा रुतबा था। उनका जाना एक बड़ा लॉस है। उनकी कहानियां, नाटक और उपन्यास नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा का काम करेंगे। कैसे हम सरल भाषा में आसपास के किरदारों को अपनी कहानियों में गढ़ते हैं।
साहित्य सृजन के साथ शशि कपूर के साथ अभिनय भी किया
साहित्यकार और रांची में असिस्टेंट इंस्पेक्टर जनरल वर्तुल सिंह ने बताया कि मंजूर साहब मेरे पिता डॉ. विजय मोहन सिंह के करीबी मित्र थे। अक्सर भोपाल हमारे प्रोफेसर कॉलोनी वाले घर में वो आया करते। घंटों-घंटों महफिलें जमतीं। कईं बार देर रात हो जाती तो मेरे पिता उन्हें ऑटो में बिठाकर आते थे। क्योंकि मंजूर साहब गाड़ी नहीं ड्राइव करते थे। मंजूर साहब ने ही मुझे भोपालनामा किताब लिखने के लिए प्रेरित किया था।
मंजूर साहब ने साहित्य में हमेशा क्षेत्रीयता को उभारा। उनकी कहानियां सोचने पर मजबूर कर देती हैं। साहित्य सृजन के साथ उन्होंने अभिनय भी किया। उन्होंने इस्माइल मर्चेट की भोपाल में शूट हुई फिल्म इन कस्टडी मुहाफिज मे शिक्षक का रोल भी किया था। इस फिल्म में मुख्य भूमिका में शशि कपूर थे। जो एक शायर बने थे। साथ में ओमपुरी, शबाना आजमी, नीना गुप्ता भी थे। मशहूर पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज को भोपाल लाने वाले मंजूर साहब ही थे। साथ ही उन्होंने साहित्यकार फजल ताबिश के अधूरे उपन्यास वो आदमी को इन्होंने ही पब्लिश कराया था। जो काफी चर्चित हुआ।
जब मंजूर भाई को देखकर खड़े हो गए थे दूरदर्शन के बड़े-बड़े अधिकारी
रंग निर्देशक मांगीलाल शर्मा ने बताया कि मेरा मंजूर साहब से मिलना 1970 में हुआ। उसके बाद मिलना जुलना लगा रहा। मैं भारत भवन में रंगमंडल से जुड़ गया। मैं अभिनय से जुड़ा रहा और वे साहित्य सृजन करते रहे। उनसे अक्सर मिलना होता था। एक दिन मैं उनके घर में बैठा था तब उन्होंने मुझसे कहा कि मांगी आप कलाकार कुछ पढ़ते भी हैं या सिर्फ अभिनय करते हैं। तब उन्होंने मुझे अपनी कहानी तस्बीह पढ़ने को दी। उसे पढ़ने के बाद मैंने इच्छा जताई की मैं उनकी कहानी पर नाटक खेलना चाहता हूं। वे तैयार हो गए। इसके बाद तो उनकी कई कहानियों पर हमनें नाटक किया। इस साल मार्च में भी भोपाल के रवींद्र भवन में हमने उनके नाटकों का तीन दिवसीय रंग पर्व नाम से थिएटर फेस्टिवल किया। यह उसका तीसरा चरण था। मुझे उनसे जुड़ा एक किस्सा याद आ रहा है। उनकी कहानी तस्बीह पर दूरदर्शन में सीरियल बनना था। जब मैं उनके साथ गया तो वहां दूरदर्शन में बड़ी-बड़ी शख्सियतें मंजूर साहब को देखकर खड़ी हो गईं। मैं हैरान था। ये मालूम था कि वो नामी साहित्यकार हैं, लेकिन उनका रुतबा और सम्मान इतना है वो उस दिन देखा। क्योंकि हमें उनके साथ रहते हुए कभी एहसास इसलिए नहीं हुआ कि वे हमारे साथ बेहद सहज सरल थे। उनके व्यक्तित्व को देखकर नहीं लगता था कि इतनी गहराई है उनके भीतर। वह इतने बड़े इंसान हैं। उनका जाना मेरे लिए मेरे बड़े भाई के जाने जैसा है।
हमने मंजूर में अच्छे साहित्यकार के साथ बेहतरीन अभिनेता को भी महसूस किया और जाना
दूरदर्शन, आकाशवाणी के पूर्व महानिदेशक, कवि, लेखक और मंजूर एहतेशाम के मित्र लीलाधर मंडलोई ने बताया कि मैंने मंजूर साहब के साथ रहने और उनके साथ बहुत कुछ सीखा। मैं उनके गुफ़्तगू के अंदाज़ ,देहभाषा, उनकी मुस्कुराहट और सेंस आफ टाईमिंग का मुरीद था। उनके नपे -तुले बोलने के अंदाज में एक शरारत होती जिसे पकड़ना आसान न होता। अगर उनकी आंखों से नजर एक पल के लिए भी हटी तो समझो उनकी चुप्पी में बोलने की कला और मानी को खो दिया। उनके वजूद में एक सिनेमेटिक लेंग्वेज थी। और वे अशोक कुमार की तरह झुके हुए कंधों से अपने को अभिव्यक्त कर लिया करते है। उनकी हंसी के कई शेड्स थे, और हैं। किसी बात
पर एक खास अंदाज की हंसी में उनके जवाब होते थे। वे आंखों का इस्तेमाल खास प्रसंगों में हथियार की तरह करते थे। मुझे एक वाक्या याद आ रहा है कि विभा मिश्रा को दूरदर्शन भोपाल से एक फिल्म मिली। श्रीकांत वर्मा की कहानी थी। उसके नायक के जीवन के एकांत को देहभाषा में मूर्त करना था। अभिनेता के चयन पर विभा कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी। सारी फिल्म का दारोमदार नायक के कंधों पर था। अंततः मैंने मंजूर साहब का नाम सुझाया। विभा ने कहा मंजूर साहब हू-ब-हू वही लगते हैं। उनके मेनेरिज़्म भी किरदार से मिलते हैं। बोलना कम है। बिना संवाद के भी यह फिल्म बन सकती है। थोड़ी अलग तरह से मेहनत स्क्रीन प्ले पर करनी पड़ेगी। सो तब्दीलियां की गईं।

लोकेशन में पहली मंजिल पर कमरा चाहिए था, जहां से मंजूर साहब को लांग और मिड शाट में अधिक और क्लोजअप में बनिस्बत कम दिखाया जा सके। फिल्म का बड़ा हिस्सा खिड़की के बाहर था जिस पर उन्हें रिएक्ट करना था। जो मूव्हमेंट उनके अपने मेनेरिज़्म और बाडी लेंग्वेज में था। जब फाइनल एडिटिंग के बाद हमने फिल्म को प्रिव्यू किया तो विभा निःशब्द थीं। वह अपने कथा मानी को अभिव्यक्त करती एक मुकम्मिल फिल्म बन पड़ी थी। हमने अपने अभिनेता को पाया। कहानी को मंजूर साहब में। हमने मंजूर साहब को उस रोज दिल से सेलिब्रेट किया। वे साहित्य के बाहर भी एक बड़े किरदार हैं। नाटक और दूसरी कलाओं पर भी उनकी गहरी समझ थी। वे कम बोलते थे। वे पुराने 78 आरःपी.एम. के रिकार्ड की तरह साढ़े तीन मिनट में अपना पूरा राग सुनाकर चुप हो जाने वाले पके हुए कलाकार थे। उनके साथ फिल्म के अलावा शकेब जलाली की रचनाओं के लिप्यंतरण के समय भी लंबा बैठने का मौका मिला। किताब उर्दू में थी और हिंदी में मुझे लिखते हुए पांडुलिपि तैयार करना था। पहले गजलों के साथ नज़्मों को भी शामिल करना था। उन्होंने कुछ नज़्में चुनी भी थीं। वे गजलों के मुकाबले कमज़ोर लगीं।और नज़्मों को न रखने का फैसला हुआ। उनकी शायरी को लेकर गहरी समझ को, मैं लिप्यंतरण करते हुए समझ रहा था। यह काम हमने धैर्य से किया। इस विचार के मूल में फजल ताबिश थे। यह किताब उन्हीं को समर्पित है। इसे शिल्पायन ने छापा है। यह शायद शकेब की हिंदी में पहली किताब थी। उन्होंने भूमिका नहीं लिखी, यह काम उन्होंने जिद करके मुझसे करवाया।

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