जब हम खेलने के लिए खेलते थे… ऐसा है भारत का टेस्ट इतिहास, सफेद जर्सी में 593वीं बार मैदान पर उतरेगी टीम इंडिया

जब हम खेलने के लिए खेलते थे… ऐसा है भारत का टेस्ट इतिहास, सफेद जर्सी में 593वीं बार मैदान पर उतरेगी टीम इंडिया


Indian Cricket Team: एंडरसन-तेंदुलकर सीरीज का तीसरा टेस्ट मैच बुधवार (23 जुलाई) को शुरू हो रहा है. यह भारतीय क्रिकेट टीम का 593वां टेस्ट मैच होगा. 25 जून, 1932 को भारत ने इंग्लैंड के खिलाफ लॉर्ड्स के मैदान पर अपना पहला टेस्ट मैच खेला था. तब क्रिकेट मुख्य रूप से यूरोपीय देशों का खेल था. भारत में तब अंग्रेजों का शासन था और क्रिकेट भी अच्छा-खासा लोकप्रिय था. यह एलिट वर्ग का खेल माना जाता था. अंग्रेजों की देखा-देखी भारत के रियासतों के राजा-महाराजा भी शौकिया क्रिकेट खेला करते थे. इसलिए भारत की शुरुआती टेस्ट टीमों में अधिकतर राजा, महाराजा या नवाब ही होते थे. और तो और, अक्सर टीम का कप्तान भी उन्हें ही बनाया जाता था.

उस दौर के कई ऐसे किस्से हैं जिनमें राजा-महाराजाओं ने खेलने से इंकार कर दिया क्योंकि उनकी जगह किसी और खिलाड़ी (जिन्हें वो रैयत मानते थे) को कप्तान बना दिया गया था. उस दौर से शुरू हुई भारतीय क्रिकेट की 592 मैचों की टेस्ट यात्रा कई पड़ावों से होकर गुजरी है. एक वो दौर था जब इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसी टीमें कॉम्पिटिशन की कमी के चलते भारत के खिलाफ खेलना पसंद नहीं करती थीं. एक ये दौर है जब भारत, ऑस्ट्रेलिया को उसके घर में ही लगातार दो टेस्ट सीरीज में हरा चुका है. इंग्लैंड को भारत में टेस्ट सीरीज जीते 13 साल हो चुके हैं. शुरुआत और वर्तमान के बीच कई मुकाबले मील के पत्थर बन गए.

1932-2025: मैच -592    जीत-182   हार-186 ड्रॉ-223

1932-1952: जब हम ‘खेलने’ के लिए खेलते थे

भारत के टेस्ट करियर के शुरुआत के 20 सालों में टीम में रजवाड़ों का प्रभुत्व था. रजवाड़ों के लिए क्रिकेट एक शगल था, जीत-हार की प्रतियोगिता नहीं. आजादी के बाद रजवाड़े खत्म हो गए और क्रिकेट आम लोगों का खेल बन गया. हालांकि, पहले 20 सालों में भारतीय टीम विपक्षी टीमों के लिए गंभीर चुनौती नहीं बन पाई. इस दौरान सबसे बड़ी उपलब्धि 1952 में मिली जब भारत ने इंग्लैंड को हराकर टेस्ट मैचों में पहली जीत हासिल की. इसी साल पाकिस्तान को हराकर भारत ने पहली बार सीरीज भी जीती. 

मैच -31 जीत-2 हार-15 ड्रॉ-14 

1953-1972: हम तब भी सबसे कमजोर टीमों में एक थे

भारत के टेस्ट सफर के अगले 20 साल यानी 1953 से 1972 के बीच जीत का अनुपात बढ़ा, लेकिन टीम तब भी काफी कमजोर थी. टीम में तेज गेंदबाजों की निहायत कमी थी. बल्लेबाज थे, लेकिन विदेशी पिचों पर फुस्स साबित होते थे. जिन टीमों के पास अच्छे तेज गेंदबाज थे, उनके खिलाफ देशी पिचों पर भी उनका बल्ला खामोश ही रहता था. इस दौर की सबसे बड़ी खासियत टीम का मजबूत स्पिन अटैक था. 1960 के दशक के अंत में सुनील गावस्कर के रूप में टीम को ऐसा बल्लेबाज मिला जिसने उम्मीद बंधाई कि भारत के बैटर विदेशी पिचों पर भी अच्छा खेल सकते हैं. 

मैच -93 जीत-15 हार-34 ड्रॉ-44

1973-1992: तब हम ड्रॉ के लिए खेलते थे

बल्लेबाजी के लिहाज से 1973 से 1992 का दौर भारतीय क्रिकेट के लिए बेहतरीन था. गावस्कर के अलावा दिलीप वेंगसरकर, संदीप पाटिल, रवि शास्त्री, मोहिंदर अमरनाथ जैसे बल्लेबाजों के दम पर भारत घरेलू पिचों पर ताकतवर टीम के रूप में उभरने लगा. इसका एक बड़ा कारण टीम के स्पिन गेंदबाज भी थे जो घरेलू पिचों पर विदेशी बल्लेबाजों को फिरकी के जाल में आसानी से फंसा लेते थे. तेज गेंदबाजी अब भी टीम की कमजोरी थी. इसलिए विदेशों में टीम का प्रदर्शन बेहद कमजोर था. देश में ऐसी पिचें बनाई जाती थीं जो बल्लेबाजी के लिए अनुकूल हों और जिन पर तेज गेंदबाज असर न छोड़ पाएं. इसका मकसद हार से बचना होता था और ड्रॉ भी एक उपलब्धि मानी जाती थी. 1990 के दशक के आते-आते दो बड़ी बातें हुईं. पहला सचिन तेंदुलकर जिन्होंने 16 साल की उम्र में डेब्यू के साथ ही बता दिया कि वे स्पेशल टैलेंट हैं. दूसरा, जवागल श्रीनाथ और वेंकटेश प्रसाद जैसे तेज गेंदबाजों की एक खेप सामने आई. इन गेंदबाजों ने पहली बार बार यह बताया कि फास्ट बॉलिंग के लिए मददगार पिचों पर भी भारत मजबूत चुनौती पेश कर सकता है.

मैच -152 जीत-26 हार-46 ड्रॉ-79

1993-2012: पहली बार हार से ज्यादा जीत

1993 से 2012 के बीच का समय भारतीय बल्लेबाजी के लिहाज से स्वर्णकाल था. तेंदुलकर के साथ राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण, वीरेंद्र सहवाग, सौरव गांगुली जैसे भारतीय बल्लेबाजों ने पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाया. अनिल कुंबले और हरभजन सिंह के रूप में दो ऐसे स्पनर मिले जो एक दशक से ज्यादा तक विश्व क्रिकेट में शीर्ष पर रहे. ये वो दौर था जब पहली बार भारत ने अपने तेज गेंदबाजों के दम पर मैच जीतना शुरू किया. जहीर खान, एस श्रीसंत, मुनाफ पटेल, प्रवीण कुमार जैसे तेज गेंदबाजों ने दिखाया कि स्पीड, स्विंग या सीम- किसी मामले में वे कमतर नहीं हैं. यही कारण है कि इन 20 सालों में पहली बार भारतीय टीम के हारे हुए मैचों का आंकड़ा जीत से कम रहा. इतना ही नहीं, जीते हुए मैचों की संख्या ड्रॉ से भी ज्यादा रही. सबसे बड़ी खासियत ये थी कि भारतीय टीम घरेलू पिचों पर तो अजेय बनी ही रही, उसने विदेशों में भी जीत हासिल करना शुरू कर दिया था.

मैच -192 जीत-72 हार-53 ड्रॉ-67

2013- अब हैं चैंपियन टीम

टेस्ट क्रिकेट में भारत के सौ साल पूरे होने में अभी सात साल बाकी हैं. अब तक के 12 सालों में भारत लगातार दुनिया की शीर्ष तीन टीमों में शामिल रहा है. विराट कोहली और रोहित शर्मा टीम का बैटिंग लेगेसी के ध्वजवाहक रहे हैं तो जसप्रीत बुमराह के रूप में भारत को अनोखा तेज गेंदबाज भी मिला है जो किसी तरह की पिच पर अपना असर छोड़ सकता है. इसके अलावा मोहम्मद शमी, मोहम्मद सिराज, आकाशदीप, प्रसिद्ध कृष्णा जैसे खिलाड़ियों के दम पर भारत ने तेज गेंदबाजों का ऐसा पूल तैयार कर लिया है जो कहीं भी विपक्षी टीमों के लिए खतरनाक बन सकते हैं. ऑलराउंडर के रूप में रविंद्र जडेजा और आर अश्विन ने अपनी छाप छोड़ी है. ये दोनों ही खिलाड़ी टीम के शीर्ष स्पिन गेंदबाज तो हैं ही, टेस्ट मैचों में कई शतक भी लगा चुके हैं. यही कारण है कि 2013 के बाद टीम की जीत का आंकड़ा हार और ड्रॉ को मिलाकर भी ज्यादा है. भारतीय टीम हर देश में टेस्ट मैच जीत रही है और ऑस्ट्रेलिया में दो लगाताक सीरीज जीत चुकी है.

मैच -124 जीत-67 हार-37 ड्रॉ-20

आदित्य पूजन



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