पन्नी और नाड़े बांधने की मान्यता
स्थानीय परंपरा के अनुसार, इस मंदिर की लोहे की जाली पर भक्त अपनी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए पन्नी और नाड़े (धागे) बांधते हैं. श्रद्धालुओं का विश्वास है कि मां जयंती माता उनकी हर सच्ची इच्छा पूरी करती हैं. यही वजह है कि यहां दूर-दूर से भक्त अपनी मनोकामनाएं लेकर पहुंचते हैं.
मंदिर के पुजारी चेतन गिरी महाराज बताते हैं कि यह स्थान पवित्र इसलिए है क्योंकि यहां आदिशक्ति की जिव्हा गिरी थी. तभी से यहां माता जिव्हा स्वरूप में विराजमान हैं. शुरुआत में यहां एक छोटी सी कुटिया थी, जिसे बाद में मंदिर का स्वरूप दिया गया.
चार नवरात्रियों का आयोजन
इस मंदिर में हर मंगलवार को सिंदूर चढ़ाने की परंपरा है. साल में चार नवरात्रियां यहां मनाई जाती हैं चैत्र, अश्विन और दो गुप्त नवरात्रि. खासकर चैत्र नवरात्रि पर नौ दिनों तक बड़ा मेला लगता है. साधक विशेषकर गुप्त नवरात्रियों में हवन और देवी पाठ करते हैं.
इस मंदिर की एक और खासियत है पास में स्थित झरना. यह झरना तपती गर्मियों में भी कभी नहीं सूखता. झरने के पास बने भैरव बाबा के मंदिर और पीछे की गुफा में बैठकर श्रद्धालु ठंडी हवा और शांति का अनुभव करते हैं.
जंगलों से होकर कठिन मार्ग
खंडवा जिले से पुनासा और इंदिरा सागर बांध पार करने के बाद 15-17 किलोमीटर का जंगल मार्ग पार करना पड़ता है.
खरगोन जिले के बड़वाह से आने वाले भक्तों को कनेरी नदी पार करनी पड़ती है.
मंदिर का इतिहास चांदगढ़ के राजा तखत सिंह और उनके दत्तक पुत्र वासुदेव सोलंकी से जुड़ा है. आज भी सोलंकी परिवार मंदिर की देखरेख करता है और इसे अपनी कुलदेवी का धाम मानता है.
आस्था और धरोहर का संगम
मां जयंती माता का मंदिर केवल आस्था का केंद्र नहीं, बल्कि प्रकृति, पौराणिक गाथा और अध्यात्म का संगम है. यही कारण है कि यहां आने वाले भक्त न सिर्फ दर्शन करते हैं, बल्कि जंगलों की हरियाली, झरनों की ठंडी हवा और गुफा की शांति का भी अनुभव करते हैं.