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- Ludhiana Teacher Day Story; Narinder Singh Smart Class | Shikshak Diwas
3 मिनट पहलेलेखक: सृष्टि तिवारी
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साल 2006, लुधियाना का जंडियाली गांव।
प्राइमरी स्कूल में जब नरिंदर सिंह बतौर टीचर नियुक्त हुए, तब यहां सिर्फ 3 क्लासरूम में कुल 174 बच्चे थे। क्लासरूम भी ऐसे कि अंदर जाने में डर लगता।
एक सुबह जोर की बारिश हुई। पूरी क्लास में घुटनों तक पानी भर गया। नरिंदर सारे बच्चों को बाहर पेड़ के नीचे ले आए और वहीं बैठकर पढ़ाने लगे। जिस तरफ छांव होती, उसी तरफ घूमकर बैठ जाते। काफी समय बाद क्लास से पानी निकल पाया।
एक शाम स्कूल के बच्चे उनसे ग्राउंड में खेलने की जिद करने लगे। जैसे शहर के प्राइवेट स्कूलों के बच्चे खेला करते थे। स्कूल में तो खेलने की कोई जगह नहीं थी, मगर स्कूल के बगल में ही खाली मैदान था। नरिंदर बच्चों को लेकर वहां पहुंचे तो देखा बड़े-बड़े पत्थर भरे पड़े थे।
उन्होंने बच्चों से कहा, ‘हम इसी मैदान से पत्थर निकालकर इसे प्लेन करेंगे, फिर यहीं खेलेंगे।’ ये कहकर वो बच्चों को लेकर वापस लौट गए। अगले दिन जब वो स्कूल के पास से गुजरे, तो देखा बच्चे बारिश में भीगते हुए अपने छोटे-छोटे हाथों से पत्थर हटा रहे थे।
इस घटना का उनपर गहरा असर हुआ। उन्होंने उसी दिन कसम खाई कि अपने स्कूल और बच्चों की किस्मत बदलनी है।

ये हैं जंडियाली के नरिंदर सिंह, जिन्हें आज टीचर्स डे के मौके पर नेशनल टीचर अवॉर्ड दिया जाएगा।
फंडिंग जुटाने निकले तो किसी ने भरोसा नहीं किया
नरिंदर अगली सुबह ही स्कूल का इंफ्रास्ट्रक्चर सुधारने के लिए फंड जुटाने निकले। उन्होंने गांव वालों से मदद मांगी। लोग कहते- ‘तुम तो अभी आए हो। ऐसे कैसे पैसे दे दें। ऐसे कई मास्टर आकर चले गए हैं।’
उन्हें समझ आया कि अभी पेरेंट्स उन पर भरोसा नहीं करते। पहले पढ़ाई का स्टैंडर्ड सुधारना होगा जिससे लोग उनपर भरोसा करें। उन्होंने कहा, ‘मैं 6 महीने में आपको बेहतर रिजल्ट दूंगा, आप रिजल्ट देखने के बाद मेरी मदद करना।’
बच्चों के लिए लर्निंग मटीरियल तैयार करने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। उन्होंने ये बात अपनी पत्नी को बताई तो पहली मदद उनकी पत्नी ने ही दी। इसके बाद नरिंदर ने बच्चों को इंटरेक्टिव तरीकों से पढ़ाना शुरू किया। कुछ ही महीनों में स्कूल का रिजल्ट सुधरने लगा।
एक बच्ची ने पूरे ब्लॉक में टॉप किया। उसी महीने कबड्डी की टीम डिस्ट्रिक्ट में सेकेंड आई। ऐसे बहुत सारे छोटे-छोटे अचीवमेंट्स से गांव वालों को उनपर भरोसा होने लगा।

अब हर साल बच्चे कबड्डी में हिस्सा लेते हैं और जीतकर आते हैं।
नरिंदर बताते हैं, ‘मैंने गांव वालों को 10 हजार रुपए ऑफर किए। उनसे कहा कि आप ये पैसे लेकर ग्राउंड को लेवल करवा दीजिए। लेकिन गांव वालों ने पैसे लेने से मना कर दिया और कहा आप क्यों देंगे, हमारा गांव है हम मदद करेंगे। फिर सभी के सहयोग से ग्राउंड को लेवल किया गया।’
गांव के बच्चों के लिए समर कैंप शुरू किया
वो कहते हैं, ‘2007 में हमें नया क्लासरूम मिला। 2008 में मैंने गांव के बच्चों के लिए पहला समर कैंप शुरू किया। कैंप में हमने बच्चों को कैलिग्राफी, पेंटिंग और गेम्स सिखाए। इसका फायदा ये हुआ कि वही बच्चे आगे जाकर कॉम्पिटिशन में हिस्सा लेने लगे और जीतकर आने लगे। प्राइवेट स्कूल के बच्चे तो पैसे लगा सकते हैं, हमारे बच्चे नहीं। समर कैंप से उन्हें स्कूल आने की एक वजह भी मिल जाती है।’

नरिंदर कहते हैं- समर कैंप से बच्चों को स्कूल आने का एक बहाना मिलता है, उनका मन लगा रहता है।
‘हमारे पहले समर कैंप में 69 बच्चों ने हिस्सा लिया था। हमारे इस कैंप को देखने चंडीगढ़ एजुकेशन डिपार्टमेंट के कुछ लोग भी आए थे। उसके बाद अगले साल और भी स्कूलों में समर कैंप की शुरुआत हुई। उसके अगले साल और 4-5 स्कूलों ने इसकी शुरुआत की।’
अपने खर्च पर बच्चों को सिंगिंग, डांसिंग सिखाई
इस स्कूल में बच्चे पेंटिंग, कैलीग्राफी, सोलो डांस, सिंगिंग सब कुछ सीखते हैं। नरिंदर बताते हैं कि वो बच्चों को अपने खर्चे पर सिंगिंग और डांसिंग सिखाते हैं।
उन्होंने कहा, ‘मैंने 7वीं क्लास के बच्चे को खुद पैसे देकर संगीत सिखवाया। मैंने उसकी क्लास के 500 रुपए और कॉम्पिटिशन डे पर 1000 रुपए दिए। खुशी की बात है कि वो जीतकर आया। अब वो कभी-कभी भजन मंडली के साथ गाने चला जाता है, जिससे उसे अर्निंग भी हो जाती है।
‘ऐसे ही हमारा एक स्टूडेंट अमन पेंटिंग करता था। अभी फाइन आर्ट्स कर रहा है और लोगों के लाइव स्केच बनाता है। एक स्केच के वो आराम से 1500-2000 रुपए तक कमा लेता है। इसी तरह हमारे दो बच्चे जो स्पोर्ट्स में बहुत अच्छे थे अब कोच बन गए हैं।’
बच्चों को घर से लेने जाते तो पेरेंट्स नाराज होते
नरिंदर कहते है, ‘मैंने एक पैटर्न नोटिस किया। अक्सर बच्चे गुरुवार को स्कूल नहीं आते थे, मालूम करने पर पता चला कि उस दिन कहीं दूध जलेबी मिलती है। बच्चे वहीं चले जाते हैं।’

नरिंदर कहते हैं- रियल लाइफ एजुकेशन पर मेरा फोकस है।
मैंने बच्चों के पेरेंट्स से बात की। मैं घर-घर जाकर बच्चों को स्कूल लाने लगा। कभी कोई घर की छत पर पतंग उड़ा रहा होता तो कोई घर में रजाई में सो रहा होता। मैं उनको खींचकर स्कूल लाने लगा।
पहले साल पेरेंट्स ने इसका विरोध भी किया कि आप बच्चों के साथ ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन फिर उन्हें समझाया तो वे भी समझ गए कि ये बच्चों के भले के लिए ही है।
आज स्कूल में 15 स्मार्ट क्लासेज
इस स्कूल में 15 क्लास रूम हैं। हर क्लास रूम में प्रोजेक्टर लगे हुए हैं। इस स्कूल में किसी भी प्राइवेट स्कूल से ज्यादा सुविधाएं हैं। जैसे LED, प्रोजेक्टर, कंप्यूटर लैब, लैपटॉप, लाइब्रेरी।
इसके अलावा कुछ इनीशिएटिव्स भी हैं जो नरिंदर ने ही शुरू किए हैं।

ऑनेस्टी शॉप से बच्चे अपनी जरूरत की चीजें जैसे पेंसिल, कॉपी ले सकते हैं।
लॉस्ट एंड फाउंड कॉर्नर : बच्चे अब किसी का भी खोया हुआ समान जैसे, बॉटल, पेन, बुक्स घर नहीं ले जाते। बल्कि लॉस्ट एंड फाउंड कॉर्नर में ले जाकर रख देते हैं। जिसका भी खोया सामान होता है वो वहीं से कलेक्ट कर लेता है।
ऑनेस्टी शॉप: स्कूल में एक छोटी सी स्टेशनरी है। यहां बच्चों की जरूरत की सभी चीजें हैं, मगर कोई शॉपकीपर नहीं है। यहां से बच्चे पेंसिल, इरेजर ले जाते हैं और उसके पैसे ईमानदारी से बॉक्स में डाल देते हैं।
वन वे ट्रैफिक : बच्चे जब स्कूल में लंच टाइम पर दौड़ते थे तो कई बार यहां-वहां टकरा जाते थे और उन्हें चोट लग जाती थी। अब पूरे स्कूल में सभी अपने बांए हाथ की तरफ ही चलते हैं। कोई भी सिर्फ सीढ़ी के एक ही तरफ से जा सकता है। ये रूल न सिर्फ बच्चों के लिए बल्कि टीचर्स के लिए भी है।
ट्रैफिक सिग्नल : स्कूल में एक ट्रैफिक सिग्नल है। यहां रेड, ग्रीन और येलो लाइट लगाई गई हैं, जहां बच्चे ट्रैफिक रूल्स और एथिक्स सीखते हैं।
डेमोक्रेसी समझने के लिए इलेक्शन में हिस्सा लेते हैं बच्चे
इस स्कूल में बच्चों को डेमोक्रेसी सिखाने के लिए इलेक्शन करवाए जाते हैं। लीडरशिप गुणों वाले बच्चे इलेक्शन लड़ते हैं। लाइन में लगकर आईकार्ड दिखाकर वोट देते हैं, काउंटिंग होती है, अगले दिन रिजल्ट आता है और एक साल के लिए काउंसिल बनती है।
यही काउंसिल अगले एक साल के लिए काम करती है। इसके साथ ही बच्चों को जल संरक्षण, खाद निर्माण सिखाया जाता है।
प्राइवेट स्कूल के बच्चे जंडियाली आते हैं
गांव के लोग कहते हैं, ‘इस स्कूल में 800 बच्चे हैं। आसपास के गांव से भी जंडियाली में कई सारे बच्चे पढ़ने आते हैं। ये बच्चे प्राइवेट स्कूल छोड़कर यहां स्कूल में एडमिशन लेकर पढ़ रहे हैं।’

नरिंदर बताते हैं, ‘ये बच्चे आसपास के गांव से हैं। उन्हें ऑटो या किसी दूसरे वाहन से स्कूल आना होता है। ये बच्चे यहां अपने खर्च पर पढ़ने आते हैं।’
नेशनल अवॉर्ड के बाद आगे क्या रास्ता
नेशनल अवॉर्ड मिलने की बात पर नरिंदर कहते हैं, ये सब तो सिर्फ एक हिस्सा है। मुझे लगता है मैंने जो सोचा है अभी उसके आधे रास्ते में भी नहीं पहुंचा हूं। मैं बस यही चाहता हूं हम कुछ और बेहतर कर सकें। हर साल कोशिश करता हूं कि बच्चे जब स्कूल आएं तो उन्हें कुछ नया सीखने को मिले।
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