न कोई रिश्ता, न पहचान.. फिर भी निभाई अंतिम रस्म, जाने इस तारणहार की कहानी

न कोई रिश्ता, न पहचान.. फिर भी निभाई अंतिम रस्म, जाने इस तारणहार की कहानी


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Bhopal News: भोपाल के रहने वाले रामकुमार पांसी हरदा जिले के सिराली नगर पालिका में पदस्थ हैं. लोकल 18 से बात करते हुए रामकुमार ने बताया कि साल 2011 में मैंने अखबार में लावारिस अस्तियों के बारे में पढ़ा था…

भोपाल : पितृ पक्ष में बड़ी संख्या में दूर-दूर से लोग अपनों की अस्तियों का विसर्जन और पिंडदान के लिए प्रयागराज पहुंचते हैं. मगर कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जिनकी अस्थियों का विसर्जन नहीं हो पता है, जिसके चलते उन्हें मुक्ति नहीं मिलती है. इसमें कुछ लावारिस अस्थियां होती हैं तो कुछ के अपने ही मरने के बाद उनकी हस्तियों को विश्राम घाट पर छोड़ जाते हैं. ऐसे में बड़ी संख्या में अस्थियां विसर्जन घाट पर इकट्ठा हो जाती हैं. मगर राजधानी भोपाल के एक ऐसे शख्स है, जिन्होंने इस तरह की अस्थियों के विसर्जन का बीड़ा उठाया है.

भोपाल के रहने वाले रामकुमार पांसी हरदा जिले के सिराली नगर पालिका में पदस्थ हैं. लोकल 18 से बात करते हुए रामकुमार ने बताया कि साल 2011 में मैंने अखबार में लावारिस अस्तियों के बारे में पढ़ा था. भदभदा विश्राम घाट के लॉकर में लावारिस अस्थियां रखी हुई थी, जिन्हें गंगा में विसर्जित करने वाला कोई नहीं था. इसके बाद मैंने ठाना की इन अस्तियों का विसर्जन मैं स्वयं जाकर करुंगा. बाबूजी से अनुमति लेकर मैंने सभी लावारिस अस्तियों का विसर्जन प्रयागराज स्थित त्रिवेणी घाट पर किया.

भोपाल के तारणहार की कहानी

रामकुमार बताते हैं कि अब तक मैं सितंबर 2024 तक करीब 49,490 अस्तियों को प्रयागराज स्थित गंगा नदी में प्रवाहित कर चुका हूं. इस बार फिर से करीब 200 अस्तियां लेकर मैं इलाहाबाद त्रिवेणी घाट पर पहुंचकर इन हस्तियों का विसर्जन करूंगा. लावारिस अस्थियां छोड़ने में बड़ी संख्या उन लोगों की है, जिनके अपने इलाज के दौरान भोपाल में दम तोड़ देते हैं. जैसे-तैसे वे यहां अंतिम संस्कार तो कर देते हैं, लेकिन बाद में लौटकर ही नहीं आते.

रामकुमार बताते हैं कि जब भी उनका इन अस्तियों को लेकर प्रयागराज जाना होता है, तो इस दौरान अन्य जिलों से भी लोग उनके साथ शामिल हो जाते हैं. इसमें प्रदेश के पिपरिया जबलपुर और कटनी जैसी जगहों से भी लोग मिलते हैं. चूंकि प्रयागराज में क्रिया कर्म के लिए पैसे लिए जाते हैं. इसलिए कई लोग उनके साथ शामिल हो जाते हैं. इसमें सभी अस्थियां लावारिस नहीं होती हैं. कुछ ऐसी व्यवस्था होती है, जिनके परिवारजन अस्तियों को वापस लेने नहीं आते हैं.

सरकार से अंतिम संस्कार के लिए तो मदद मिल जाती है, लेकिन अस्थि विसर्जन के लिए इलाहाबाद तक जाने में भी खर्च तो होता ही है. मेरी कोशिश यही है कि ऐसी अस्थ्यिां को भी सम्मान मिलना ही चाहिए. वह लोगों से भी अपील करते हैं कि यदि कोई अपने परिवार जनों की अस्तियां नहीं लेकर जाना चाहता है या ले जाने में सक्षम नहीं है, तो वह अस्थियां हमें दे सकता है. हम इस तरह की अस्तियों को प्रतिवर्ष प्रयागराज त्रिवेणी संगम घाट पर ले जाते हैं.

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