यहां नहीं पूजते मूर्ति, लगता है ‘इश्क’ का मेला…आलीराजपुर के रोचक तथ्य

यहां नहीं पूजते मूर्ति, लगता है ‘इश्क’ का मेला…आलीराजपुर के रोचक तथ्य


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मध्य प्रदेश का आलीराजपुर जिला न सिर्फ राज्य बल्कि पूरे देश में अपनी अलग पहचान रखता है. यह जिला अपनी संस्कृति, इतिहास और परंपराओं में बेहद समृद्ध है. यहां के कारीगर लकड़ी पर नक्काशी करते हैं और मोतियों से गहने बनाते हैं. वे दीवारों पर चित्रकारी करते हैं, जो जिले की पहचान है.

भारत में हर जिले की अपनी एक पहचान और कहानी है. कोई शिक्षा में आगे है, तो कोई उद्योगों में समृद्ध लेकिन मध्य प्रदेश का आलीराजपुर जिला अपनी सादगी, परंपरा, गरीबी और पिछड़ेपन के अनोखे संगम के लिए जाना जाता है. यह जिला पहले अलीराजपुर कहलाता था, जिसे अब आधिकारिक रूप से आलीराजपुर कहा जाने लगा है.

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इस जिले का नाम जितना रोचक है, उतनी ही रोचक इसकी पौराणिक पृष्ठभूमि भी है. आलीराजपुर पूरी तरह से एक आदिवासी जिला है, जहां भील जनजाति की आबादी सबसे ज्यादा है. यहां के लोगों के रीति-रिवाज और धार्मिक मान्यता बाकी जगहों और धर्म से बिल्कुल ही अलग है. यहां मूर्ति पूजा नहीं की जाती है. जनजातीय लोग पहाड़, झरना और बाबादेव की पूजा करते हैं. ढास और पड़जिया उनकी परंपरा है. इस परंपरा में गांव के लोग मिलकर किसी भी काम को पूरा कर देते हैं.

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इतिहासकारों के अनुसार, 15वीं शताब्दी में यहां आलिया भील नामक राजा का शासन था. लोग स्थानीय बोली में “आलिया नो राजपाट” कहते थे, जिसका अर्थ होता था आलिया का राज्य. यही नाम आगे चलकर आलीराजपुर बन गया. 1908 में अंग्रेजों के Western Gazetteer Volume V में भी इसे Alyrajpore (आलीराजपोर) कहा गया था.

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17वीं शताब्दी में राणा राठौड़ वंश के आनंद देव ने इस क्षेत्र को अपने अधीन किया. बाद में आलीराजपुर झाबुआ का हिस्सा बना रहा लेकिन 17 मई 2008 को इसे अलग जिला घोषित किया गया. आलीराजपुर जैन मंदिरों के लिए काफी प्रसिद्ध है. यहां का लक्ष्मणी तीर्थ मंदिर 2000 साल पुराना है. यह जैन धर्म के प्रमुख तीर्थस्थलों में से एक है. यहां पद्म प्रभु स्वामी की मूर्ति विराजमान है.

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इस जिले की सबसे खास बात यह है कि यहां आज भी हस्तशिल्प और लोककला जीवित है. यहां के कारीगर लकड़ी पर बारीक नक्काशी करते हैं, जो मध्य प्रदेश सहित पूरे भारत में प्रसिद्ध है. कारीगर लकड़ी पर नक्काशी कर गुड्डे-गुड़िया भी बनाते हैं.

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आलीराजपुर का आधार कांच गांव मोतियों की पारंपरिक ‘गलसन माला’ बनाने के लिए प्रसिद्ध है. रंग-बिरंगे मोतियों से बनी चूड़ियां, हार और झुमके यहां की पहचान हैं.

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आलीराजपुर में हर साल होली से पहले लगने वाला भगोरिया हाट मेला सबसे बड़ा आकर्षण है. इसे ‘इश्क’ का मेला’ भी कहा जाता है. इस मेले में आदिवासी युवक-युवतियां पारंपरिक वेशभूषा में सज-धजकर शामिल होते हैं और नृत्य करते हैं. इसकी झलक देखने के लिए देश-विदेश से सैलानी आते हैं.

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यहां की ‘पिथौरा पेंटिंग’ भी बेहद प्रसिद्ध है. भिलाला और राठवा जनजातियों द्वारा दीवारों पर बनाई जाने वाली ये अनुष्ठानिक चित्रकला यहां की धार्मिक पहचान है. इसके अलावा पारंपरिक चांदी की हंसली (हार) और अन्य धातु के गहने आज भी महिलाओं के श्रृंगार का हिस्सा हैं.

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आलीराजपुर की धरती क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की जन्मभूमि भी है. यहां का भाभरा (अब चंद्रशेखर आजाद नगर) कस्बा ऐतिहासिक महत्व रखता है. यहां क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की झोपड़ी (घर) है, जहां उन्होंने अपना बचपन बिताया. आज भी उनकी झोपड़ी को संग्रहालय के रूप में संरक्षित किया गया है.

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आलीराजपुर की एक और पहचान यह भी है कि यह देश का सबसे गरीब जिला है. यहां की साक्षरता दर 40 प्रतिशत से भी कम है. करीब 71 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं. सड़क, बिजली, पानी और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी आज भी लोगों के जीवन का हिस्सा है.

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आलीराजपुर जिला आम के बगीचों के लिए भी प्रसिद्ध है. यहां आमों की विशेष प्रजाति पाई जाती है, जिसकी डिमांड दुनियाभर में है. यहां के कट्ठीवाड़ा क्षेत्र में दुनिया की सबसे प्रसिद्ध और दुर्लभ आम प्रजातियों में से एक नूरजहां आम के बगीचे हैं.

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