इस देसी जुगाड़ से 45 दिन में बनाइए ऐसी खाद, जो सूखे खेत को भी बना दे ‘सोना उगलता खजाना!

इस देसी जुगाड़ से 45 दिन में बनाइए ऐसी खाद, जो सूखे खेत को भी बना दे ‘सोना उगलता खजाना!


खंडवा जिले और आसपास के गांवों में अब किसान रासायनिक यूरिया‑डीएपी छोड़कर घर पर ही जैविक वर्मीकम्पोस्ट बना रहे हैं सिर्फ 45 दिनों में! इस प्रक्रिया ने किसानों के चेहरे पर मुस्कान लौटाई है, मिट्टी की ताकत बढ़ी है, और पैदावार भी छलांग लगा रही है.

क्या है वर्मीकम्पोस्ट?
वर्मीकम्पोस्ट वह खाद है जिसे खास किस्म के केंचुओं जैसे रेड विकलर की मदद से बनाया जाता है. ये केंचुए खेत या घर के आस-पास बने गड्ढे में सूखी पत्तियां, गोबर, किचन वेस्ट और भूसे को फर्टाइल माटी में बदल देते हैं. इस प्रक्रिया से मिट्टी की सेहत सुधरती है, पानी बचता है, और फसलों की गुणवत्ता भी बेहतर होती है.

कैसे बनाएं?
खेत या घर के पास एक छोटा गड्ढा या टैंक तैयार करें.

वर्गों में सूखी पत्तियां, किचन वेस्ट, गोबर, भूसा और मिट्टी की परत लगाएं.

रेड विकलर केंचुए डालें और मिश्रण को हल्का गीला रखें.

हर 10–15 दिन में गड्ढा हल्के से पलटें, ताकि ऑक्सीजन पहुंचे.

45 दिनों में काली, मुलायम, मिट्टी जैसी खाद तैयार हो जाती है. इसे खेत या गमलों में डालें.

इससे क्या फायदे मिलते हैं?
मिट्टी की ताकत और उर्वरता बढ़ेगी- रासायनिक खाद के नुकसान के बाद यह है इलाज.

खर्च में बचत- यूरिया, डीएपी और कीटनाशक का खर्च लगभग घट जाता है.

फसल की गुणवत्ता में सुधार- फल‑सब्ज़ियाँ स्वादिष्ट, बड़ी और टिकाऊ बनती हैं.

पानी की बचत- मिट्टी में पानी लंबे समय तक रहता है, जिससे सिंचाई की जरूरत कम होती है.

पर्यावरण सुस्थिर- रासायनिक प्रदूषण से मुक्ति.

किसानों की जुबानी
खंडवा की आदिवासी महिलाएं इस पहल में सबसे आगे हैं. गाँव‑गाँव समूह बनाकर वर्मीकम्पोस्ट बना रही हैं और बेचकर आमदनी भी हो रही है. वे कहती हैं कि पहले यूरिया‑डीएपी पर थक-जाकर भी फसल ठीक नहीं होती थी. अब खुद की खाद से मिट्टी में जान लौट आई है, और आमदनी भी अच्छी हो रही है.

जिस किसान ने ये तरीका अपनाया, उसने सब्जी, दलहन, तिलहन में 25–30% तक अधिक उत्पादन देखा. कीट, रोग और विषैली मिट्टी के डर से छुटकारा मिला.

सरकार की भूमिका और आगे की राह
राज्य सरकार और कृषि विज्ञान केंद्र नियमित प्रशिक्षण दे रहे हैं. वर्मीकम्पोस्ट यूनिट केंचुए‑सैट उपलब्ध कराए जाते हैं. सरकार की ये पहल आत्मनिर्भर खेती की दिशा में एक बुनियाद है.

रिजल्ट?
खर्च कम, कमाई ज्यादा

फसल की गुणवत्ता बेहतर, मिट्टी सुदृढ़ और संरक्षित

पर्यावरण स्वस्थ बने, पानी भी बचे

यह तरीका न केवल खेती और किसानों की जिंदगी को बदल रहा है, बल्कि भविष्य में स्थायी खेती का आधार भी तैयार कर रहा है.



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