एमपी के अफसर गुजरात भेजते हैं, वहां कोई नहीं सुनता: बोले- बनासकांठा पटाखा फैक्ट्री ब्लास्ट के पीड़ित, 6 महीने बाद भी नहीं मिला मुआवजा – Madhya Pradesh News

एमपी के अफसर गुजरात भेजते हैं, वहां कोई नहीं सुनता:  बोले- बनासकांठा पटाखा फैक्ट्री ब्लास्ट के पीड़ित, 6 महीने बाद भी नहीं मिला मुआवजा – Madhya Pradesh News


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यह दर्द है हरदा जिले के हंडिया के रहने वाले संतोष बंजारा का। संतोष की आवाज में बेबसी और आंखों में अपने पूरे परिवार को खो देने का मातम साफ झलकता है। संतोष अब इस दुनिया में अकेले हैं। उनकी पत्नी और तीन बेटे 1 अप्रैल को गुजरात के बनासकांठा की पटाखा फैक्ट्री धमाके में मारे गए।

यह कहानी सिर्फ संतोष की नहीं, बल्कि उन 6 बंजारा परिवारों की है, जिनकी जिंदगी नियति के एक क्रूर मजाक में तब्दील हो चुकी है। ये वो परिवार हैं, जिन्होंने पहले हरदा में मौत को मात दी, लेकिन पेट की आग उन्हें हजारों किलोमीटर दूर गुजरात ले गई, जहां मौत ने उन्हें फिर घेर लिया।

हरदा का धमाका और छिना रोजगार हरदा जिले के हंडिया कस्बे के बाहरी इलाके में रहने वाले ये 6 बंजारा परिवार पीढ़ियों से पटाखे बनाने का काम करते आए हैं। यही उनका हुनर था और यही उनकी रोजी-रोटी का एकमात्र साधन। परिवार के सदस्य हरदा के बैरागढ़ स्थित पटाखा फैक्ट्री में काम करते थे।

6 फरवरी 2024 का दिन उनके लिए कयामत बनकर आया। फैक्ट्री में हुए भीषण धमाकों ने पूरे हरदा को दहला दिया। किस्मत अच्छी थी कि उस दिन इन परिवारों के सदस्य बाल-बाल बच गए, लेकिन इस हादसे ने उनसे उनका काम छीन लिया। फैक्ट्री बंद हो गई और ये परिवार बेरोजगार हो गए।

पेट की आग ने गुजरात पहुंचाया संतोष बताते हैं, ‘फरवरी में धमाके के बाद कुछ महीने तो जैसे-तैसे कट गए, लेकिन फिर रोजी-रोटी की चिंता सताने लगी। हम बंजारा लोगों को पटाखे बनाने के अलावा और कोई काम ठीक से आता भी नहीं था।’ इसी बीच, हरदा की एक महिला, लक्ष्मी, जो मजदूरों को काम पर लगवाती थी, उसने गुजरात की एक पटाखा फैक्ट्री में काम का प्रस्ताव रखा।

बेरोजगारी और भुखमरी के डर से सभी परिवार तैयार हो गए। उन्हें बस काम चाहिए था, चाहे वह कहीं भी मिले। मार्च 2025 में, हंडिया, मालकुंड और संदलपुर से 20 से ज्यादा लोगों का एक दल गुजरात के बनासकांठा के लिए रवाना हो गया। उन्हें क्या पता था कि यह सफर उनकी जिंदगी का आखिरी सफर साबित होगा।

बनास मेडिकल कॉलेज में रखी मरने वाले मजदूरों की लाशें। तस्वीर 2 अप्रैल 2025 की है।

बनास मेडिकल कॉलेज में रखी मरने वाले मजदूरों की लाशें। तस्वीर 2 अप्रैल 2025 की है।

जब मौत ने पीछा नहीं छोड़ा मार्च 2025 के आखिरी दिनों में यह दल बनासकांठा के डीसा स्थित पटाखा फैक्ट्री पहुंचा। पटाखे बनाने में माहिर होने के कारण उन्हें सबसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण जगह, यानी बॉयलर के पास काम पर लगाया गया। उन्हें काम करते हुए महज दो दिन ही हुए थे। 1 अप्रैल 2025 की सुबह, जब वे काम पर थे, तभी एक जोरदार धमाके के साथ बॉयलर फट गया।

धमाका इतना शक्तिशाली था कि उसने फैक्ट्री को मलबे के ढेर में बदल दिया और साथ ही इन परिवारों की खुशियों को भी। इस हादसे में हंडिया और आसपास के 18 लोगों की दर्दनाक मौत हो गई, जिनमें संतोष की पत्नी बबीता (36) और बेटे धनराज (18) और संजय (12) भी शामिल थे।

मुआवजे का संघर्ष, दो राज्यों के बीच पिसते पीड़ित धमाके की खबर मिलते ही परिवार के बचे-कुचे लोग रोते-बिलखते गुजरात भागे। एक-एक करके 18 लाशें हंडिया लाई गईं। संतोष कहते हैं, उस समय मध्य प्रदेश सरकार ने 2-2 लाख और गुजरात सरकार ने भी 4-4 लाख रुपए की तत्काल सहायता की घोषणा की थी, जो उनके खातों में आ चुकी है।

गुजरात सरकार ने वादा किया था कि यह सिर्फ तात्कालिक मदद है और जल्द ही मौत के मुआवजे की पूरी राशि दी जाएगी, लेकिन वह ‘जल्द’ आज तक नहीं आया। अब इन परिवारों पर दोहरी मार पड़ रही है। एक तो उन्होंने अपनों को खो दिया, और दूसरा, वे मुआवजे के लिए दो राज्यों की नौकरशाही के बीच फंसे हैं।

हरदा और हंडिया के पीड़ितों में अंतर क्यों? यह विडंबना ही है कि बनासकांठा विस्फोट से लगभग एक साल पहले हुए हरदा पटाखा फैक्ट्री विस्फोट में जान गंवाने वाले सभी मृतकों के परिवारों को मध्य प्रदेश सरकार ने 21-21 लाख रुपए की सहायता राशि दी है। हरदा में अपने बेटे आशीष को खोने वाले संजय राजपूत बताते हैं कि सरकार ने उनके बेटे को वीरता पुरस्कार भी दिया और मुआवजा भी मिला।

लेकिन गुजरात में मारे गए हंडिया के इन मजदूरों के परिवारों के हिस्से में सिर्फ इंतजार आया है। इस मामले पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता आनंद जाट कहते हैं, ‘हंडिया के पीड़ितों का मामला हरदा से अलग है। हरदा में हादसा और पीड़ित, दोनों मध्य प्रदेश के थे, इसलिए उनकी आवाज सरकार तक पहुंची और उन्हें न्याय मिला।

गुजरात का मामला होने से याचिका दायर नहीं हुई पीड़ितों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहीं अवनि बंसल बताती हैं कि इन परिवारों के लिए न्याय का रास्ता बहुत कठिन है। जब उन्होंने मुआवजे के लिए NGT (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) में याचिका लगाने की कोशिश की, तो मध्य प्रदेश में यह कहकर मना कर दिया गया कि मामला गुजरात का है। अब इन गरीब, अनपढ़ परिवारों को हर पेशी पर गुजरात जाना पड़ता है, जो उनके लिए आर्थिक और मानसिक रूप से तोड़ देने वाला अनुभव है।



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